Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 282
________________ H - प्रतिष्ठा पाव --A - २७६ अथ तपोभावनाः। अब तपकी भावना कहै हैबाह्याभ्यंतरभेदतो द्विविधता तत्रापि षट्भेदकं वाह्यावांतरमेधिसखविभवप्रत्यूहनिर्णाशनात् । भक्ष्याभावतदूनतावतपरीसंख्यानषट्स्वादना मोहैकांतशयासनांगकदनान्येवं तु वाह्यं तपः॥८४४ ॥ अर वाह्य अभ्यंतर भेदकरि तपके दोय प्रकार हैं। तहां वाच छह प्रकार हैं अर तरंग भी छह प्रकार है। अपना स्वरूपकी स्वच्छता का बधवा करि प्रत्यूह जो विघ्न ताका नाशते होय है। भक्ष्याभाव कहिये अनशन १ तदूनता कहिये अवमोदर्य २ वृत्तिपरिसंख्यान ३ रसपरित्याग ४ एकांत शय्यासन ५ अंगकदन कहिये कायक्ल श६ या प्रकार वाहतपने नमस्कार कराहां ॥८४४॥ ओं ही पट प्रकारवाहतपोधारकाय जिनायाघम् । अंत्ये दोषविसंगतो न भवति प्रायश्चितानां क्रमो नो वा यत्र विनेयताव्युपस्मादौपाधिकस्योद्भवः । नान्यत्र स्थितिमत्सु साधुषु तथा वैयावृत्तेः प्रक्रमो नो वा शास्त्रसुशीलनं त्विति परंपार्येण बोध्यं जिने ॥८४५॥ जिनराजकै दोषांको संगम नहीं होय है ताते प्रायश्चित्तनिका प्रक्रम नहीं है अरु स्वयं प्राचार्य हैं तो विनय किसका करें और साधुनिका | वेयात्रत्य भो कहा होय अर स्वय'बुद्धकै शास्त्रको चितवन भी परंपरामात्र ही जानवे योग्य है ॥८४५॥ व्युत्सर्ग प्रतिवासरं प्रसरतो ध्यानं स्वमाध्यायत - AMARAGRECER-RHEORRECT AFNOPSISGAURU % 3 Jain Educatio n al For Private & Personal Use Only Vinelibrary.org

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