Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 281
________________ प्रतिष्ठा २७५ अथोत्तरक्रियाः। अब यहां उत्तर क्रिया कहिये हैतस्मिन् क्षणे त्वर्थविबोधमुद्गमन्निव स्मरप्राणहरो जिनाधिपः। उत्तार्यते यज्वभिरूढदीपकज्योतिर्भिरारद्युगसंख्यसत्फलैः ॥८४१॥ अर ताही क्षणमे मनः पर्यय ज्ञानने प्रकट करतो ही मानू कामवासनाको प्राणवैरी जिनराज है सो यजनके कर्ता हैं (१) ॥८४१॥ तत्रोपवासं मघवा तथार्यो यज्ञा शची चान्यमहे नियुक्ताः। विदध्युरूचे विधिना हि मध्यंदिने जिनाग्रे चरुपूजनानि ॥ ८४२ ॥ अर तिस इंद्र अथवा प्राचार्य अर यजमान इंद्राणी अर अन्य भी यज्ञमें नियुक्त उपवास करें, दिनके मध्य ऊर्ध्व विधिमें जिनक प्रागै | नैवेद्य आदिकरि पूजन करै ॥४२॥ तदैव पंचाभुतवृष्टिरग्रे विवस्य पुष्पांजलिना समेता। योज्या ध्वनि तूर्यगणैविधाय भुजीयुरन्यानपि भोजयित्वा ।। ८४३ ॥ अरु उस हो पंचरत्नकी दृष्टि आश्चर्ययुक्त जिनविंबके अग्रभाग पुष्प दृष्टियुक्त योजन करनी अर वादित्रकरि ध्वनि बजाय अन्य साधर्मो जननें उपवासके पारणाके दिन भोजन करावै। ऐसे पाहारग्रहणविधान करै ॥८४३॥ 4% AEHHRIKANER P ARISHNAXNS २७५ Jain Educatio n al For Private & Personal Use Only G elibrary.org

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