Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 270
________________ प्रतिष्ठा २६४ Jain Education % से संबद्धा श्रणवो निष्पन्नं यैर्भवांतरे ऽप्यशुचि देहं त एवाघचिताः शकलीक्रियतेऽद्य भावितैरंगं ॥ ८१४ ॥ जिन प्राणीनिने अपनी शरीरकी वृद्धिमें परमाणु संबंधरूप किये अर अपवित्र देह निष्पन्न किया वे ही इस भवमें संचयरूप भये।अर कमभावनानुसार तिनकरि ही देह खंडित करिये है ॥ ८१४ ॥ पश्यतु मम मूढत्वं जातावधिबोधलोचनसहस्रस्य । दृष्ट्वापि विश्वविकृतिं निमज्जनं तत्र निर्भयं कुर्वे ॥ ८१५ ॥ श्रीभगवान विचार है कि मेरा मुढपना देखो प्राप्त भया है अवधिज्ञानरूपी नेत्रनिका सहस्र जाकै ऐसा मेरे मी संसारका विकारने देख करि भी तहां ही अपना डूबना निःशंक करू हूं ॥ ८१५॥ · संख्यातिगा चरमजातिनिगोतवासान्निर्गत्य भूरिजननानि धरांबुजातौ । तेजोमरुत्सु च वनस्पतिषु द्विभित्सु क्षुद्रा भवाः कुमरणाद् भविना गृहीताः ॥ ८१६ ॥ अनंत वा असंख्यात जन्ममैं तो निगोदको वास करें है अर तातें कथंचित् निकसि पृथ्वीकाय जलकाय जाति तथा अग्निकाय पवनकायमै चकारतें वनस्पति प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित भेदरूप दोय प्रकारमें इस प्राणीने कुमरण क्षुद्र भव ग्रहण किये ॥ ८१६ ॥ द्वित्र्यादिकेंद्रियगणेषु च पंचकाक्षेऽसंज्ञित्वसंज्ञिविधया द्वितयप्रणीते । तिर्यग्मनुष्यसुरजातिषु जन्ममृत्युकष्टं प्रलब्धमसुभृद्भिरघोपयोगात् ॥ ८१७ ॥ फिर सकाय ते द्रियनिका गण में तथा पंचेद्रियनिमें संज्ञी असंज्ञी दोय प्रकार कथितमें अर तियंच मनुष्य देव जातिमें जन्म मरण का कष्टने पापका योगर्ते प्राणीने लब्ध किये श्रर्थात् पाये ॥ ८१७ ॥ स्वर्गस्थोऽत्यशुभोदयेन पतति श्वत्वे तथा श्वा सुरेडू For Private & Personal Use Only पाठ २६४ Vithelibrary.org

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