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प्रतिष्ठा
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संस्थाप्याभिषवार्थमय॑मकरोत् क्षीराब्धितः संभृतैः । कुंभैरष्टचतुःक्षितिप्रमलसद्भिर्योजनैर्विस्तृतै
ध्ये चोदरवक्त्रयोः सुरगणानीतेभृशं मोदत ॥ ७६७ ॥ अर उस सुमेरु पर्वतमें ऊपरि पांडक नाम शिला है तामध्य तीन सिंहासन हैं तहां मध्य सिंहासनमें जिनेंद्र विराजमान करि क्षीर ॐ समुद्रते भरे आठ योजन लंबे च्यारि योजन मोटे अर एक योजन मुखवाले कलशनि करि देव परस्पर हर्ष भरेनिसहित अर्घपाद्य करि स्नान करावतो भयो॥७६७॥
दिग्पालाः स्वस्वदिक्षु स्थितिमधुरवनी द्यामधिव्याप्य भक्त्या
शक्राग्निश्राद्धदेवाशरवरुणमरुत्श्रीदश(दुनागाः। सर्वे सर्वज्ञभक्ता अधिकृतनियुताश्चापरे द्वादशेंद्राः ।
संख्यातीताः सुरा वै निजवपुषि परानंदमाजग्मुरिष्टौ ।। ७६८ ।। अर तहां दिक्पाल देव पृथ्वीने तथा प्राकाशने व्याप्त करि भक्तियुक्त होय इंद्र अग्नि यम नैऋत्य वरुण पवन कुवेर ईशान अर धरणेंद्र |चंद्र अपनी अपनी दिशामें स्थिति करते भये ते सर्व सर्वज्ञदेवके भक्त अर अनादिकालते अपना नियोगमें निपुण तथा अन्य भो द्वादश इंद्र । भर असंख्यात देव देवांगना उस उत्सवमें अपना शरीरमें परम आनंदने प्राप्त होते भये ॥७६८॥
अतिशयितशरीरे तीर्थभर्तुः पवित्रे जलकणलवलेशो नांगलग्नो बभूव ।
स्फटिक इव तथापि स्वामिसेवात्तचित्ता कृतुपतिललनांग मार्जयामास भर्तुः ॥ ७६६ ॥ पर श्रीतीर्थ करका पवित्र अतिशययुक्त शरीरमं जलकणनिका लवलेश किंचिन्यात्र भी स्फाटिकमें तैसें अंगमें लग्यो हो नहीं होतो भयो तथापि स्वायीकी भक्ति सेवामें मग्न है चित्त नाका ऐसी इंद्राणी भगवानका अंगनै मार्जन करती भई ।। ७६ ॥
CHIKARAN
PARSHURCHASACRELIGISTER
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