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प्रतिष्ठा
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निक्षिप्यमाण उदभात् कनकाचलेषु स्नानीयनीरनिकरो व जिनांगकांतौ ॥ ७६४ ॥
तब इंद्राणीका किया भारतीके रत्न शिलासमूहमें पुष्पांजलिका समूह इंद्र अर यजमान करि क्षेप्यो जैसे मेरुमें चेप्यो स्नानका जल भगवानका अंगकी कांतिमें शोभायमान हूवो तैसें शोभित होते भयो ॥ ७६४ ॥
श्रीमातरं लसितवक्त्रसरोरुहां च राजानमुद्भटमहासुकृतानुभावं ।
या शताध्वरपतिर्जिनराजमंके संस्थाप्य तांडवमकांडभवं ततान ॥ ७६५ ॥
बहुरि इंद्र महाराज श्रीमती विकसित मुखारविदयुक्त माताजीने अर प्रकट महापुण्यका अनुभाववाला राजाने नमस्कार करि अरु जिनराजने गोद में स्थापि आकस्मिक समय में भया तांडव नृत्य करतो भयो ॥ ७६५ ॥
संबुद्वहर्ष फलिताविव तौ स्ववंशमुच्चैर्धृतं यदधिजन्म जिनाधिभर्ता ।
भूपावृते सदसि तुष्टुवः प्रमोदः पूर्वं कृतार्चनविधिश्च ननर्त शक्रः ॥ ७६६ ॥
बहुरि माता पिता वढा हर्ष करि फलित हो है ऐसा अपना वंशमें या समय जिनराजने जन्म धारण किया ता समयमें अनेक राजानिका समूहयुक्त सभांगणमें तुष्टरूप करते भये अर प्रमोदपूर्वक पूजन सामिग्रीकरि इंद्र राजा नृत्य करतो भयौ ॥ ७६६ ॥
इति तांडवानंतर जिनं वेद्यामारोप्य जन्मकल्याणकचतुर्विंशतितिथी नुद्दिश्य सपर्या कर्तव्या ।
ऐसें महा तांडव नृत्यकार श्री जिनविबने वेदी में श्रारोपण करि चौईस जिनेंद्रनिका जन्मकल्याणकी तिथिकी उद्देश्य पूर्वक पूजन करणे
अंगुष्टयोरमृतदुग्धविधिं प्रक्लृप्य बालार्यमप्रतिभुवः सविधे कुमारान् ।
संयोज्य पंचशतकान् वसनान्नपानभूषाफलादिभिरुपास्य जगाम कामं ॥ ७६७ ॥
बहुरि इंद्र महाराज श्रीजिनराजका हस्त अंगुष्ठमैं अमृतरूप दुग्धविधिनै कल्पनाकरि जो बालक सूर्य समान श्रीजिनका निकट पंचशत
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पाठ
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