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दोषाभावेऽप्यथ निशिदिवाहारनीहारकृत्ये
ज्ञाताज्ञातप्रमदवशतो जंतुरभ्यर्दितः स्यात् । नित्यं तस्य प्रतिभयलवं व्युत्सृजानः स्वयं यो
दोषवातैनहि जुडति तं धीरवीरं यजामि ॥ ६४७॥ कदाचित् दोषका प्रभावन होता संता भी रात्रि वा दिनमैं आहार नीहार कार्य मैं ज्ञात अज्ञातभावते प्रमादका वशते प्राणो पीडित हुवा होय ताकू नित्य भय लवमात्र आप ही यादि करि आलोचना करै सो साधु दोपनिका समूह करि नहीं जुड़े अर्थात् युक्त नहीं होय तिस धीर वीर साधुने मैं पूज हूँ॥६४७॥
ओं ही प्रतिक्रमणावश्यकगुणधारकसाधुपरयेष्टिभ्योऽयं । नित्यं चेतःकपिरचलतां नैति तयंत्रणार्थं
स्वाध्यायाख्यैः प्रगुणनिगडैबंधमानीय भद्रे। मार्गे युंज्याच्छ्रतपरिणतात्मीयमोदावधानो
वृत्तिं शुद्धां श्रयति स महानर्थ्यतेऽनर्ध्यबुद्धिः ॥ ६४८॥ नित्य यह चित्तरूपी मर्कट अचलतानै नहीं प्राप्त होय है ताका वश करनेके अर्थि स्वाध्याय नाम सांकलनि करि बंधनने प्राप्त करि | सुंदर मार्गमें युक्त करै है अरु श्रुतरूप परिणग्या आत्माका आनंदमैं सावधान हुवो संतो शुद्ध दृचिनै आश्रय करें है सो अनर्थ्यबुद्धि साधु मैं करि पूजिये है ॥६४८॥
ओं ह्रीं स्वाध्यायावश्यकगुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय । श्रामे भांडे कुथितकुणपे यादृशी नश्यहेय
बुद्धिः काये सततनियता वीतरागेश्वराणां ।
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