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प्रतिष्ठा
पाठ
२१८
MIRRORECAS-
एवं चतुर्दशसुपूर्वगतश्रुतार्थ शब्देन ये ह्यमितशक्तिमुदाहरंति ।
तानत्र शास्त्रपरिलब्धिविधानभूतिसंपत्तयेऽहमधुनाहणया धिनोमि ॥ ६७१ ॥ असे ही चतुर्दश सुदर पूर्वगत श्रुतका अर्थने शब्द करि सहित उदाहरण करै तिनकू शास्त्रकी प्राप्तिका विधान संपदाके निमित्त मैं अव || भी पूजा करि प्रसन्न करू हूं ॥६७१॥
ओं ही चतुर्दशपूर्वित्वऋद्धिमाप्त भ्भोऽर्थे । अन्योपदेशविरहेऽपि सुसंयमस्य चारित्रकोटिविधयः स्वयमुद्भवति ।
प्रत्येकबुद्धमतयः खलु ते प्रशस्यास्तेषां मनाक स्मरणतो मम पापनाशः॥ ६७२॥ अरु अन्य गुरु जनका उपदेश विरहमें भी संयमकी चारित्र कोटि विधान जे हैं ते स्वतः ही प्रकट होय हैं ते प्रत्येकबुद्धिमति हैं तिनको प्रशंसा करि मेरा पापका नाश स्मरणते होय है ।।६७२।।
ओं ह्रीं प्रत्येकबुद्धत्वऋद्धिमाप्तभ्योऽयम् । न्यायागमस्मृतिपुराणपठित्यभावेऽप्याविर्भवंति परवादविदारणोद्धाः ।
वादित्वबुद्धय इति श्रमणाः स्वधर्म निर्वाहयंति समये खलु तान् यजामि ॥ ६७३ ॥ अरु जे न्याय बागम स्मृति पुराणनिके पठनका प्रभाव में भी परवादिनिके मान विदीर्ण करै हैं उन वादित्वबुद्धिसंयुक्त मुनिनकू मैं पूजू हूँ॥६७३॥
ओं हो वादित्वऋद्धिमाप्त भ्योऽर्थे। जंघाग्निहेतिकुसुमच्छदतंतुवीजश्रेणीसमाजगमना इति चारणांकाः । ऋद्धिक्रियापरिणता मुनयः स्वशक्तिसंभावितास्त इह पूजनमालभंतु ।। ६७४ ॥
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