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ओं हो दशलक्षणोत्तमादित्रिलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप तथा मुनिगृहस्थाचारभेदेन द्विविध तथा दयारूपत्वे नैकरूपजिनधर्माय अघम् ।
यागमंडलसमुद्धृता जिनाः सिद्धवीतमदनाः श्रुतानि च ।
चैत्यचैत्यगृहधर्ममागमं संयजामि सुविशुद्धिपूर्तये ॥ ७१२॥ इस यागमंडलमें उद्धार किया जिनेंद्रदेव हैं ते तथा सिद्धिरूप वीतराग गुरु जे हैं ते तथा चैत्य चैयालय आगम धम जे हैं विनिकों विशुद्धिकी परिपूर्णता निमित्त मैं पूजू हूँ॥७१२॥
ओं ही सर्वयागमंडलदेवताभ्यः पूर्णार्धम् । शांतिः पुष्टिरनाकुलत्वमुदितभ्राजिष्णुताविष्कृतिः
संसारार्णवदुःखदावशमनं निःश्रेयसोदभूतिता। सौराज्यं मुनिवर्यपादवरिवस्याप्रक्रमो नित्यशो
भूयादभ्रशराक्षिनायकमहापूजाप्रभावान्मम ॥ ७१३ ॥ यह दोयम पंचास महानायक पूजाका प्रभावतें भव्यनिकै शांति होय पुष्टि होय अनाकुलपना होय तेजखिताकी प्राप्ति होय अरु संसार समुद्रमै दुःखरूप दावानलको शमन होय अरु कल्याणको उत्पत्ति होय अरु सुंदर राज्य अरु मुनिवर चरण पूजाको अनुक्रय सदाकाल होय ॥७१३ ॥
इत्याशीर्वादं पठित्वा पुष्पांजलिं क्षिपेत् । ऐसें सर्ववलयकोणमैं पुष्पांजलिरूप आशीर्वाद देना।
ततोऽत्राचार्याहंदभक्तिसिद्धश्रुतचारित्रभक्तिपाठं कृत्वा महार्यं दद्यात् । अब इहां यजमान अरु आचार्य दोन्यूआचार्यभक्ति अहंभक्ति सिदभक्ति श्रतभक्ति चारित्रभक्ति पाठ करै मा अघ देव।
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