________________
प्रतिष्ठा
२२४
Jain Education
श्रीं ह्रीं मलौषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽघ ।
उच्चार एव तदुपाहितवायुरेणू अंगस्पृशौ च निहतः किल सर्वरोगान् । पादप्रधावनजलं मम मूर्ध्निपातं किं दोषशोषणाविधौ न समर्थमस्तु ॥ ६६२ ॥
अरु जिनका मलनिपात है सो ताको स्पर्शकिई पवनअररेणु हैं ते जाका अंगकू' स्पर्श करें तदि सर्व रोगनिने हते हैं तिनका चरणारविंदका घोयो जल मेरा मस्तकमै प्राप्त हूवो कहा दोषका शोषण विधिमें समर्थ नहीं होय, अपि तु होय ही होय ॥ ६६२ ॥ ह्रीं विडोषधिऋद्धिप्राप्तेभ्योऽर्घम् ।
प्रत्यंगदंतनखकेशमलादिरस्य सर्वो हि तन्मिलितवायुरपि ज्वरादि ।
कासापतानवमिशूल भगंदराणां नाशाय ते हि भविकेन नरेण पूज्याः || ६९३ ॥
अरु जाका अंग दंत नख केश मल आदि सर्व हो तथा तिनका स्पर्श कियो पवन है सो ज्वर आदि काश अरु अपतानं कहिये मृगी वमन शूल भगंदरनिका नाशके वास्तें होय ते मुनि कोन भव्य करि पूज्य नहीं होय अर्थात् होय ही होंय ॥ ६७३ ॥
ह्रीं सर्वौषधिऋद्धिमाप्तेभ्योऽयं ।
येषां विषाक्तमशनं मुखपद्मयातं स्यान्निर्विषं खलु तदंहिधरापि येन ।
स्पृष्टा सुधा भवति जन्मजरापमृत्युध्वंसा भवेत्किमु पदाश्रयणे न तेषाम् || ६६४ ॥
अरु जिनका विषमिलित अशन हूँ मुख कमल ने प्राप्त हूवा निर्विष होय तथा तिनको पादतल पृथ्वी भी अमृतरूप होय ताकरि तिनिका पादारविंदका श्राश्रयकरि जन्म जरा मृत्युको नाश होय है ॥ ६६४ ॥
ह्रीं आस्याविषऋद्धिप्राप्तेभ्योऽर्यं ।
"येषां सुदूरमपि दृष्टिसुधानिपाता यस्यापरिस्खलति तस्य विषं सुतीत्रं ।
For Private & Personal Use Only
पाठ
२२४
library.org