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षष्ठाष्टमद्विदशपक्षकमासमात्रानुष्ठेयभुक्तिपरिहारमुदीर्य योग ।
श्रामृत्युमुग्रतपसा ह्यनिवर्तकास्ते पांत्वर्चनाविधिमिमं परिलंभयंतु ॥ ६७८ ॥ अरु बेलो तेलो बारा तथा पक्ष महीना आदि अनुष्ठान योग्य आहारको खागनै ग्रहण करि मृत्युपर्यंत तिस योग नहीं निवर्जनकाते | उग्र तप ऋद्धिके धारी येह मेरी पूजाविधि दिईने प्राप्त होऊ ॥१८॥
ओं ही उग्रतपऋद्धिमाप्तभ्योऽर्घ। घोरोपवासकरणेऽपि बलिष्ठयोगान् दौगंध्यविच्युतमुखान् महदीप्तदेहान् ।
पद्मोत्पलादिसुरभिस्वसनान्मुनींद्रान् यायज्मि दीप्ततपसो हरिचंदनेन ॥ ६७६ ॥ ॥ घोर वीर उपवास किया भी बलवान है योग कहिये मन वचन काय जिनके अरु दुगंधतारहित मुख जिमको अरु कांतिकरि देदीप्यमान है देह जिनको अरु कमल अरु नील कमल चंदन आदिवत सुगंध श्वासोच्छ्वास जिनके असे मुनींद्र दीप्त तप ऋद्धिधारिनिनै मैं हरिचंदनकरि पूजू हूं ॥६६॥
ओं ही दोमतपऋद्धिप्राप्त भ्योऽय। वैश्वानरौघपतितांबुकणेन तुल्यमाहारमाशु विलयं ननु याति येषां ।
विण्मूत्रभावपरिणाममुदेति नो वा ते संतु तप्ततपसो मम सद्विभूत्यै ॥६८०॥ अरु जिनके आहार भोजनादि शीघ्र ही अग्निमें पड्या जल कण समान विलय होय अरु विष्ठा मूत्र कफ आदि रूप नहीं परिसमै वे सस तप मुनींद्र मेरे मोक्ष विभूति अर्थि होहु ॥६८०॥
ओं ही तप्ततपऋद्धिमाप्त भ्योऽर्थ। हारावलीप्रभृतिघोरतपोऽभियुक्ताः कर्मप्रमाथनधियो यत उत्सहंते । गामाटवीष्वशनमप्यतिपातयंति ते संतु कार्मणतृणाग्निचयाः प्रशांत्यै ॥ ६८१॥
HIGHLOREKINARMADARLIAMR.
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