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मतिमा
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अरु ग्रीष्मऋतुमें धूलिका समूहकरि विखरचा कजोडा करि व्यग्र पवन करि फैलता है धूलिको पुंज जाक ऐसा मलिन शरीरमें त्यागी है संस्कार स्नान आदिकी वांछा जानै अरु निर्जनस्थान जगता सरोवरका निकटपणाने होता भी अस्नानपणो है तिनका चरणारविंद युगलनै देवोपनीत पुष्पनि करि मैं पू जू हूँ॥६५॥
ओं हों अस्नाननियमधारकसाधुपरमेष्टिभ्योऽयम् । वाल्कं फालं वसनमुपसंव्यानकोपीनखंड
कादाचित्केऽप्युपधिसमये नैव वांछस्तपस्वी । दैगंबर्यं परमकुशलं जातरूपप्रबुद्धं
___ संधार्येवं नयति परमानंदधातीं तमर्चे ॥ ६५२ ॥ अर वृक्षांका वल्कल संबंधी तथा फल संबंधी धोवती दुपट्टो कोपीन खंड आदि वस्त्रनै कदाचित् भी दुःख समयमैं भी नही वांछ तपस्वी परम दिगंबर जातरूप मुद्राने धारि परमानंदरूपी भूमिने प्राप्त होय है वे साधुने पूजू हूँ॥६५२॥
ओं ही सर्वथावस्त्रपरित्यागनियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्घ । क्षौरं शस्त्रोजनिपराधीनतापात्रमेव (?)
__ जूडा मूर्धन्यतुल कृमिदा भूतशीर्षाकृतिस्था। दोषायैवेति विहितकचोत्पाटनो मुष्टिमात्रात्
साक्षान्मोक्षाध्वनिधृतिपदः पूज्यते श्रौतकर्मा ॥ ६५३ ॥ क्षौर कराना है सो शस्त्रका यौजदगी होना रूप पराधीनताका पात्र ही है, अरु जूडा कहिये जटा यस्तक परि राखी हुई अनेक नँवा आदिकी देनेवारी है तथा भूतके मस्तककी आकृति देनेवारी है। सो हृ दोषके वास्तै ही है। ई वास्ते मुष्ठीपात्रकरि कियो है कचनको उत्पाटन जानै अरु साक्षात् मोक्षका मार्गमें धारण कियो है पद जाने ऐसो श्रुतसंबंधी कर्मधारी साधु है सो मैं करि पूजिये है॥६५॥
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