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प्रतिष्ठा
२१.
व्यक्तीकर्तुं शिखरिविपिनांतस्तनोर्निर्ममत्वे
कायोत्सर्ग रचयति मुनिः सोऽवपूजां प्रयातु ॥ ६४६ ॥
भया है राग जिनके पैसे ईश्वरनिकेँ कच्च भांडमै अरु सिड्या मृतकमें जैसी नश्य हेयबुद्धि होय है तैसी कायमै नश्य हेयबुद्धि है । ताकू प्रकट करनेकू पर्वत वन मध्ये निर्ममत्व दशामै कायोत्सर्ग रचै है सो मुनि इहां मैं करि पूजित हो ॥ ६४६ ॥
ह्रीं व्युत्सर्गावश्यक गुणधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्यं । पूर्व मणिगण चितानेकपर्यंकशायी
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सोऽयं घोरस्वनमृगपतिल स्तनागेंद्रकारे । भूग्रावोपरितनभुवि स्वप्नवत्किंचिदात्त-
faat यस्य स्मरणमपि संहति पापं स मेऽर्च्यः ॥ ६५० ॥
जो पूर्व राज्यावस्थामै मणिरत्न करि खचित अनेक पल्यंकमै शयन करें था सोही यो अवार घोर वीर शब्दवारा मृगेंद्रनिकरिकंपित हैं। हाथी जसा अंधकार मैं पर्वतनिका पाषाण ऊपरि पृथ्वीमै किंचित् स्वप्नाके समान ग्रहण कियी है निद्रा जानै भैसे हुवो संतो तिष्ठ है ताको स्मरण भी पापनै संहार करै है सो साधु मेरे पूज्य हैं ॥ ६५० ॥
श्रीं ह्रीं भूशयननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽर्घम् । ग्रीष्मे रेणूत्करविकरणव्यग्रवातप्रसर्पद्
धूलिपुंजे मलिनवपुषि त्यक्तसंस्कारवांछः । अस्नानत्वं विजनसरसीसंनिधानेऽपि येषां
i पादांबुजयुगमहं पारिजातैरुदर्चे ॥ ६५१ ॥
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पाठ
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