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प्रतिष्ठा
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यावज्जंघावलमचलतां नोज्जिहीते मुनित्वे । यावत्स्थाप्ये तदपगमने भोजनत्याग एवं
संन्यासस्य ग्रहणमिति यद् यस्य नीतिस्तमर्चे ॥ ६५६॥ यावत् काल यह देह है सो स्थिति पर धैर्यता और गमन शक्तिनै अंगीकार करै है अरु यावत्काल जंघाको बल अचलताने नहो छोडे | है अरु यावत्काल ही मुनिपणामें तिष्ठू हूं अरु ता पूर्वोक्त प्रकारका साग होय तो भोजनको हो साग है अरू संन्यासको ग्रहण है ऐस याकी| नीति कहिये नय है ता मुनिकू मैं पूजू हूँ। ६५६ ॥
ओं ही आस्थितभोजननियमधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽय। अष्टाविंशतिसद्गुणगथितसदरत्नत्रयाभूषणं
शीलेशित्वतनुत्ररक्षितवपुः कामेषुभिर्नाहतं । पाहत्यादिपदस्य वीजमनघं येषां परं पावनं
साधूनां समुदायमुत्तमकुलालंकारमाशाश्महे ॥ ६५७ ॥ अट्ठाईस मूल गुणनिकरि ग्रंथित रलत्रयको भूषणरूप अरु शोलका स्वामीपणारूप कवचकरि रक्षित शरीर कापवाणनिकरि नहीं हरायो गयो अरु अहंत आदि पदवीको वीज अरु निर्मल परम पवित्र उत्तम कुलको भूषणरूप साधुनिका समुदायने हप वांछ हैं॥६५७॥
ओं ही अस्मिन् विवप्रतिष्ठोत्सवे मुख्यपूजार्ह अष्टपवलयोन्मुद्रितसाधुपरमेष्ठिभ्यस्तन्मूलगुणग्रापेभ्यश्च पूर्णापैं। ओं ह्रीं इस विंब प्रतिष्ठाका उत्सवमें मुख्य पूजाके योग्य आठवां वलय स्थापित साधुपरमेष्टोन तथा तिनके गुणनि अथि पूर्णाघ॥
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