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प्रतिष्ठा २१५
Jain Education I
देशावधि र परमावधि अर सर्वावधि आदि भेदयुक्त अतुल न्यून मर्यादा क्षेत्र करि भिन्न औसा ज्ञानतें निरूपण करि ताकी प्राप्तिवाला मुनींद्रने पूजि चित्तमें! हुवा संदेह हरू हूं ॥ ६६० ॥
ह्रीं अवधिज्ञानधारकेभ्योऽघम् ।
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अन्योपदेशमनपेक्ष्य यथा सुकोष्ठे वीजानि तद्गृहपतिर्विनियुज्यमानः ।
ग्रंथार्थवी जबहुलान्यनतिक्रमाणि संधारयन्नृषिवरोऽर्च्छत उवस्थमंत्र : (१) ॥ ६६१ ॥
अर दूसरेका उपदेश नहीं अपेक्षित कर जैसे सुंदर कोठामें वीज जे है गृहको स्वामी विनियोग करतो संतो ग्रंथका अर्थ प्रतिक्रमरहित धार है ता मुनिवरने मैं प्रार्षोक्त मंत्रनिकरि एज हू ॥ ६६१ ॥ ह्रीं कोष्ठबुद्धयर्धप्राप्तभ्योऽघम् ।
एकं पदार्थमुपगृह्य मुखांतमध्यस्थानेषु तच्छ्रुतसमस्तपदग्रहोक्तिम् ।
पादानुसारिधिषणाद्यभियोगभाजां संपूज्य तन्मतिधरं तु समर्चयामि ॥ ६६२ ॥
अरु पदानुसारी बुद्धि ऋद्धि आदि के योग' भजनेवानिकों एक पद वा अर्थ आदि मध्य अंतमें ग्रहण कर विस श्रुतका समस्व पदनिका ग्रहण वा उक्ति होय ताहि पूजि करि तिस बुद्धिका धारी साधुने मैं पूजू हू ं ॥ ६६२ ॥
नहीं पादानुसारिबुद्धिऋद्धिप्राप्तं भ्योऽर्घम् ।
कालादियोगमनुसृत्य यथाप्तमल कोटिप्रदं भवति वीजमनिंद्रियादि । वीतरायशमनक्षयहेत्वनेकपादावधारणमतीन् परिपूजयामि ॥ ६६३ ॥
जैसे देश काल क्षेत्र आदिका योगनै अनुसरण करि जो वीज बोया होय सो कोटि वीज देनेवाला होय तैसें मन इंद्रिय वीर्या वरायका प्रशम तथा क्षय आदि हेतु करि अनेक पदका धारण ग्रहण बुद्धिमाप्त साधु होय तिनने मैं पूजू हूं ॥ ६६३ ॥
ह्रीं बीजबुद्धिऋद्धिप्राप्तं भ्योऽर्घन् ।
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पाठ
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