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चंचच्चंद्रकलाकलापहृदयाहंकारनिर्वापक
__स्थाप्याग्रेविधिमंजुलं धनद भो सन्मंडलं संलिख ॥ ३३३ ॥ पंचवर्णके चूर्ण-मंडल मांडनेके योग्य विस्तीर्ण पूर्ण सुवर्णके थालय अर्पण किया, अरु शुद्धिक धारण करनेवारा अरु रात्रिम प्रकाश करै हा ऐसी चाकीम युवान शोभनीक स्त्रियां करि पेषित किया अरु देदीप्यमान चंद्रयाकी कला सुमूहका मनका मानकू दरि करनेवारा ऐसाकू, हे कुचेर ! अग्रभागमें स्थापन करि समीचीन मंडलकूलिख । ऐसें पढ़ि सुफेद चूर्णनकू स्थापन करना ॥३३॥
श्वेतचूर्ण स्थापना हारिद्रपीतमणिचूर्णकृताधिवासो स्वर्णावखंडपरिमंडलमृद्विकल्पः ।
त्वं भो कुवेर ! जिनसद्मनि चित्रशोभे सन्मंडलं रदशुभायति पुण्यहेतोः॥३३४ ॥ बहुरि हलदी समान पीतवर्ण पणिका चूर्ण करि किया है वास्तु-विधि जानें, ऐसा हे कुवेरदेव ! तुप सुवणे खंडनके परिमंडल कहिये आभूपण तिनने धारण करनेमें है विकल्प जाकै ऐसा हुवा संता चित्र विचित्र है शोभा जाको ऐसा जिनेन्द्रभावान सुन्दर पुण्य-फलके समीचीन मंडल लिखौ ॥३३४॥
पीतचूणस्थापनं ॥ वैडूर्यरत्नकृतचूर्णमनर्घ्यजातं वास्तोष्पतीयवनभूसदशं मनोज्ञं ।
उड्डीयमानशुकपक्षवदाप्लुतांगं संगृह्य गुह्यकपते रदमंडलानि ॥ ३३५ ॥ बहुरि-हे गुहयकपते, हे कुवेर ! बहुमूल्य अरु इंद्रके नंदनवनको पृथ्वी सपान, अर्थात् सघन हरितवर्ण ऐसा मनोज्ञ अरू उड़ता जो शुभ पक्षीका पक्षवत् दैदीप्यमान चिह-युक्त वैडूर्यमणिका चूर्णर्ने ग्रहण करि मंडलन लिखौ ॥ ३३५॥
हरिच्चूर्ण स्थापनं ॥ माणिक्यतानमणिचूर्णमुपांशुमंत्रः हस्ते प्रगृह्य समवस्मृतिचित्रकार। सन्मंडलं जिनपतेः प्रतियातनेष्टौ सांलिख्य निर्जरगणे कृतिमान् भवेथाः ॥ ३३६ ॥
DASRAMMADIRAKSHARMER
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