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प्रतिष्ठा
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अरु नवकोटि पदनिकरि युक्त व्यरु संगीत कलाकरि विशिष्ट अरु छंदगण आदिने प्रकाश करतो क्रियाविशाल अंगने तथा अध्यापक परमेष्ठीनिन मैं पूजू हूं ॥ ६२६ ॥
न ह्रीं क्रियाविशालपूर्वायार्धम् ।
त्रैलोक्यविंदौ शिवतत्त्वचिंता सार्द्धा सुकोटी द्विदशप्रमाणाः ।
पदास्त्रिलोकी स्थितिसद्विधानमवाचये भ्रांतिविनाशनाय ॥ ६२७ ॥
अरु साढ़ा दोय कोटि अरु दश कोटि प्रमाणपद में मोक्षतस्त्रको चिंतन है अरू तीन लोककी स्थिति विधान है ऐसा त्रैलोक्यविंदु नाम पूर्वनै भ्रांतिका नाश अर्थ मैं पूजू हूं ॥ ६२७ ॥
ह्रीं त्रैलोक्यविदुपूर्वायार्घम् ।
इत्थं श्रीश्रुतदेवतां जिनवरांभोध्युद्गतामृद्धिभृन्मुख्यैग्रंथनिबंधनाक्षरकृतामालोकयंतीं वयं । . लोकानां तदवाप्तिपाठनधियोपाध्यायशुद्धात्मनः
कृत्वाराधनसद्विधिं धृतमहार्घेणार्चये भक्तितः ॥ ६८ ॥
ऐसे मैं जनवर समुद्र उत्पन्न अरु ऋद्धिके धारीनिकरि ग्रंथरूप कियो अरू तीन लोकनै देखनेवारी ऐसी श्रुत देवताने तथा ताकी अवाप्ति पठनवारे उपाध्याय शुद्धात्मा जे हैं तिनने आराधनविधिपूर्वक भक्तिकरि अर्ध पूजू हू' ॥ ६२८ ॥
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अस्मिन् विमतिष्ठोत्सवसद्वियाने मुख्य पूजार्ह सप्तमवलयोन्मुद्रितद्वादशांगश्रुतदेवताभ्यस्तदाराध कोपाध्यायपरमेष्ठिभ्यश्च पूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा ।
ह्रीं इस विप्रतिष्ठा मुख्य पूंजाके योग्य समय में स्थापित आचार्यपरमे हो तथा द्वादशांग श्रुतदेवताके अर्थ देना ।
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पाठ
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