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प्रतिष्ठा
२०३
SURESPECHARACHARGES
रागद्वेषाद्यभिकृतपरावृत्तदोषांतरंगा
ये वाह्या अप्युदितदशधा ते ह्यकिंचन्यभावात् । नापि स्थैर्य दधुरुरुगुणाग्राहिणि स्वांतमध्ये
' ग्रंथा येषां चरणधरणिं पूजयाम्यादरेण ॥ ६३३ ॥ रागद्वेष आदि करि पैदा किये स्वतंत्र दोष जिनि ऐसे अंतरंग परिग्रह अरु दशप्रकार वाव परिग्रहर्ते जिनके अकिंचनभावत स्थिरपणो नहीं धारै अर प्रचुर गुणवाला अंतरंग हृदयमै न प्राप्त भए तिनका चरण भूमिने मैं आदरतें पूजू हूँ॥६३३ ॥
ओं ह्रीं आकिंचन्यभावधारकायार्यम् । ईर्यापंथास्तिमितचकितस्तब्धदृष्टिप्रयोगा
. भावाच्छुद्धो युगमितधरालोकनेनापि येषां । वर्षाकालावनियवसभूजंतुजातिं विहाय
तीर्थश्रेयोगुरुनतिवशाद गच्छतोऽर्चे यतींद्रान् ॥ ६३४ ॥ अरु जिनके ईर्या मार्ग है सो स्थगित भर चकित अर पन दृष्टि प्रयोगका अभावतें अर युगमात्र अवलोकनतें भी शुद्ध है, अरु वर्षा ऋतुमै हुवे यव अंकुर हरितकाय प्रायो जातिकू छोडि तीर्थकल्याण तथा गुरुनिका नमस्कारके वशते गमन कर तिनि मुनींद्रनिकू पून हूँ॥६३४॥
ओं ही ईर्यासमितिधारकसाधुपरमेष्ठिभ्योऽप॑म् । लोभक्रोधाद्यरिगणजयाद् भीतिमोहापमर्दा· निःशल्याद्यान् जिनवचिसुधाकंठपानप्रपुष्टान् ।
CERSARKAR
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