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अथेंद्रराजः परिबद्धकर्मा ह्याचार्यवर्यः कृतुनायकश्च ।
स्थित्वा स चैत्योपकृतौ सुवेद्यां देहस्य शुद्धिं विदधातु मंः ॥ ३६८।। प्रथम इंद्र बांध्यौ है यज्ञको व्यवसाय जानै सो अरु यज्ञको कर्त्ता यजमान अरु प्राचार्य ए तीन प्राचीन प्रतिष्ठित विंब-युक्त वेदी मैं स्थित होय भामंत्र करि देहकी शुद्धि करै ॥३६॥
मनःप्रसत्यै वचसः प्रसत्य कायप्रसत्यै च कषायहानिः।
सैवाऽर्थतः स्यात् सकलीक्रियाऽन्या मंदारैःकृतिकल्पनांगा ॥ ३६६ ॥ मनकी प्रसन्नता निमित्त अरु वचनकी अरु कायकी प्रसन्नता निमित्त अंतरंग मल क्रोध मान माया लोभादि कषायनिकी हानि है सो ही! निश्चय सकलीकरण है। और बडे उदार मंत्र करि हस्त हृदयादि स्पर्शन आदि क्रिया है सो यज्ञादि विधानम कल्पना पात्र है कि उसका ही संबोधनार्थ है ॥३६॥
प्राक्कल्पितानेकविदुष्टभावप्रत्याहृति तां पुरतो विधाय।
प्राचार्यसिद्धश्रुतभक्तिपाठं करोतु पूर्व विजनप्रदेशे ॥ ३७०॥ अरु ये तीन महाशय श्रीजिनके आगे पहली कालांतरम कल्पित रचित अनेक दुष्ट-भावनका प्रयाख्यान करि, फिर एकांत स्थानम | आचायभक्ति सिद्धभक्ति श्रुतभक्ति पाउनै करै ॥३०॥
शिरस्युरस्यक्षिगले ललाटे पंचाक्षरान् पिंडगधर्मसिद्धथै ।
श्राद्यतवीजादिविदर्भग: गुरूपदेशादथवा विदध्यात् ॥ ३७१ ॥ अरु पिंडस्थ धमध्यानकी शुद्धिके हेतु मस्तकम तथा वक्षःस्थलम, नेत्र अर कंठम, ललाटमें पंच अक्षर 'असि आ उ सा' जे हैं तिननें आदि अंतम ॐनमः' इत्यादि बीज अर विदर्भ जो ममशिरो रक्ष रक्ष आदि गर्भ करि विधान करो अथवा गुरु उपदेशतें अन्य प्रयोजनांतर
रोरक्ष रक्ष प्रादिगमका ललाटमें पंच अक्षर 'असि आ उ सा' देखि करै ।। ३७१ ॥
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