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अथ प्रत्येका_णि। अब प्रत्येक अघ कहिये हैअनंतकालसंपद्भवभ्रमणभीतितो निर्वार्य संदधन् स्वयं शिवोत्तमार्यसद्मनि ।
जिनेशविश्वदर्शिविश्वनाथमुख्यनामभिः स्तुतं जिनं महामि नीरचंदनैः फलैरहं ॥४५२॥ अनंतकालते प्राप्त भया संसार-भ्रमणका भयतें इस प्राणोकू निवारण करि स्वयं शिवरूप उत्तम श्रेष्ठ गृहमें धारण कर अरु जिनेश विश्वदर्शी अरु विश्वनाथ आदि नाम करि विख्यात ऐसा जिनेंद्रनै नीर चंदन करि फल करि मैं पूजू हूँ॥ ४५२॥ ऐसें अनंत भवरूप समुद्रका भयनें दूरि करता अरु अनंत गुणन करि पूजित अहंतके अर्थि अर्घ देना
ओं हों अनंतभवार्णवभयनिवारकानंतगुणस्तुतायाहतेऽयम् । कर्मकाष्ठहुतभुक् स्वशक्तितः संप्रकाश्यमहनीयभानुभिः।
लोकतत्त्वमचले निजात्मनि संस्थित शिवमहीपतिं यजे ॥ ४५३॥ बहुरि मैं कर्म-रूप काष्ठ ताई अग्निरूपस्वशक्तिमैं ज्ञान-रूप किरणन करि लोकतत्त्व. प्रकाश करि अचल निज प्रात्मामैं स्थित ऐसा मोक्षरूप पृथ्वीका स्वामी सिद्ध परमेष्ठीनें पूजू हूं ॥४५॥ ऐसें अष्ट कर्म विनाशन-कर्ता निज आत्मतत्त्वका प्रकाशक सिद्ध परमेष्ठीके अथि अर्थ देना
ओं ही अष्टकर्यविनाशकनिजात्मतत्त्वविभासकसिद्धपरमेष्ठिनेऽय। सार्थवाहमनवद्यविद्यया शिक्षणान्मुनिमहात्मनां वरं ।
मोक्षमार्गमलघुप्रकाशकं संयजेगुरुपरंपरेश्वरम् ॥ १५॥ बहुरि मैं निर्दोष स्याद्वादविद्याकरि मुनि महापुरुषनका शिक्षा करने उत्कृष्ट मोक्ष-मार्गर्ने शीघ्र प्रकाश करनेवारा ऐसा गुरुपरंपराका खामी प्राचाय परमेष्ठीनें पूजू हूँ॥ ४५४ ॥ ऐसें निर्मल विद्याका प्रकाश आचार्य परमेष्टीके अर्थि अर्घ देना
ओं ह्रीं अनवद्यविद्याविद्योतनायाचार्यपरमेष्टिनेऽर्यम् ।
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