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प्रतिष्ठा १८८
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जिनके जातिलाभ ऐश्वर्य विद्या शरीर रूप आदिका मद कदाचित् भी उत्पन्न नहीं होय है अर बहुत सदुभावने श्राले हैं चित्त जिनके ते ईश समर्थ आचार्य हैं ते स्तवनतें कल्याण मेरे अर्थि देवो ॥ ५८४ ॥
नहीं उत्तममार्दवधर्मधुरंधराचार्य परमेष्ठिनेऽर्यं ।
सर्वव निश्छद्मदशासु वल्लीप्रतानमारोहति चित्तभूमौ । तपोयमोद्भूतफलैरबंध्या शाम्यांबुसिक्ता तु नमोऽस्तु तेभ्यः ॥ ५८५ ॥
सर्वत्र अवस्थामै धर्म रूपी बेल निःकपट दशामै चित्तरूप भूमिमै विस्तारने प्राप्त होय है अरु तप संयमतें उत्पन्न स्वर्गमोचफलनिकरि बंध्य कहिये सफल अरु शमभावरूपी जलकारि सीची गई तिन आचार्य निके अर्थ नमस्कार होहु ॥ ५८५ ॥ ह्रीं उत्तमार्जवधर्मपरिपुष्टाचार्य परमेष्ठिनेऽर्घम् ।
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भाषा समित्या भयलोभमोह मूलं कषत्वादनुभूतया च ।
हितं मितं भाषयतां मुनीनां पादारविंदद्वयमर्चयामि ॥ ५८६ ॥
अरु भय लोभ मोहका मूल विघाततैं अनुभव प्राप्त भई भाषासमिति करि हित मित भाषण करनेवारे मुनीनका चरणाविंदका द्वय मंजू हूं ॥ ५८६ ॥
ह्रीं उत्तमससधर्मप्रतिष्ठिताचार्यपरमेष्ठिनेऽर्घम् ।
न लोभरक्षोऽभ्युदयो न तृष्णागृद्धी पिशाच्यौ सविधं सदेतः ।
तस्मात् शुचित्वात्मविभा चकास्ति येषां तु पादस्थलमर्चयेऽहं ॥ ५८७ ॥
रु जिनके लोभरूपी राक्षसको उदय नहीं है, श्ररु सदा तृष्णा अर गृद्धिरूपी पिशाची समीप नहीं प्राप्त होय है ता शुचित्वपणाकी श्रात्मकांति शोभित होय है तिनका पादस्थलन मैं पूजू हूं ॥ ५८७ ॥
ह्रीं उत्तमशौचत्रधारकाचार्य परमेष्ठिनेऽर्धम् ।
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