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प्रतिष्ठा
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मनोवचःकायभिदानुमोदादिभंगतश्चेंद्रियजंतुरक्षा।
वर्वति सत्संयमबुद्धिधीरास्तेषां सपर्याविधिमाचरामि ॥ ५८८॥ ___ अर जिनके मन वचन कायाका भेदतें तथा अनुमोदनादि भंगते इंद्रियरक्षा अरु प्राणिरक्षा वत है अरु समीचीन संयम बुदिनै धोर हैं | तिनकी पूजाकी विधिने मैं आचरू हूँ॥५ ॥
___ओं ही उत्तमद्विविधसंयमपात्राचार्य परमेष्ठिनेऽर्घम् । तपोविभूषा हृदयं बिभर्ति येषां महाघोरतपोगुणाय्याः।
इंद्रादिधैर्यच्यवनं स्वतस्त्यं तया युता एव शिवैषिणः स्युः ॥ ५८६ ॥ अरु जिनकै तपरूपी भूषण है सो हृदयनै पुष्टकर है पर जे महान घोर तप गुणमें अग्रगण्य हैं, अर जिनके तपविभूषणकरि इंद्रादिके धैर्यच्युति खते ही होय ताकरि युक्त आचार्य ही मोक्ष मार्गके अभिलाषी होय हैं ॥ ५८६॥
___ओं ही उत्तमतपोऽतिशयधर्मसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिनेऽर्घम् । समस्तजंतुष्वभयं परार्थसंपत्करी ज्ञानसुदत्तिरिष्टा ।
धर्मौषधीशा अपि ते मुनीशास्त्यागेश्वरा द्रांतु मनोमलानि ॥ ५६०॥ अरु समस्त प्राणीमात्रमें अभयदान है, अरु ज्ञानदान भी परका अथि संपत्ति करनेवारा होय है, अरु धर्म रूप औषधका स्वामी ऐसे प्राचार्य हैं ते त्यागभावनाके स्वामी मेरा मनका मलकूदरिकरो॥५६॥
ओं हों उत्तमत्यागधर्मप्रवीणाचार्यपरमेष्टिनेऽर्घम् । आत्मस्वभावादपरे पदार्था न मेऽथवाऽहं न परस्य बुद्धिः। येषामिति प्राणयति प्रमाणं तेषां पदार्ची करवाणि नित्यं ॥ १९१ ॥
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