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FASABSAHASRAEECHESENTEASERIES
द्वादशांगपरिपूर्णसच्छ्रतं यः परानुपदिशेत पाठतः।
बोधयत्यभिहितार्थसिद्धये तानुपास्ययजयामि पाठकान् ॥ ४५५॥ जो द्वादशांग वाणी करि पूर्ण श्रुतनैं पूरनपढ़ा अरु आप पढ़े वांछितार्थ सिद्धिके अर्थि, ते पाठक परमेष्ठी जे हैं दिन. उपासन करि पूजू हूँ॥ ४५५॥ ऐसें द्वादशांग परिपूर्ण श्रुतका धारो उपाध्याय परमेष्ठोकू अर्घ देना।
ओं ह्रीं द्वादशांगपरिपूर्णश्रुतपाठनोचतबुद्धिविभवोपाध्याय परमेष्ठिभ्योऽयं । उग्रमय॑तपसाभिसंस्कृति ध्यानभानविनिवेशितात्मकं ।
साधकं शिवरमासुखामृते साधुमीड्यपदलब्धयेऽचये ॥ ४५६ ॥ बहरि मैं उग्र अरु सार्थक तप करि संस्कारमाप्त भया अरु ध्यान ज्ञानमैं स्थापन किया है प्रात्मा जाने ऐसा अरु मोक्षपाग लक्ष्मी सुखका अमृतमैं कारणरूप ऐसा परपेष्ठोनें पूज्यपदको प्राप्तके अर्थि पूजू हूं ॥ ४५६ ॥ ऐस घार तर करि संस्कार पाया ध्यान स्वाध्यायमैं सावधान साधु परमेष्ठोकू अर्घ देना।
ओं ह्रीं घोरतपोऽभिसंस्कृतध्यानस्वाध्यायनिरतसाधुपरमेष्ठिभ्योऽयम् । अर्हन्नेव त्रिभुवनजनानंदनान्मंडलायो
विघ्नध्वंस निजमतिकृतादस्त्रसंघोपनोदात् । संकुषस्तत्प्रकृतिरपि स्पष्टमानंददायि
न्येवं स्मृत्वा जलचरुफलैरर्चयामि लिवारं ॥४५७॥ बहुरि यहां अहंत हैं सो हो तोन जगतका प्राणोनन आनंद दने परम मंगल हैं अरु अपना ज्ञानशक्तिकृत अस्त्र संघका पतनत विघ्नका वसन करता अरु ताको मूर्ति भी स्पष्ट आनंदको देनहारो है ऐसा स्मरण करि मैं जल नवेद्य फलादि करि तीन वार अधै उतारू ४५७॥ ऐस अहंत परमेष्ठी मंगलका अघ देना
ओं ही अहल्परपेष्टिमंगलायाम् ।
SABAISASARASHREE
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