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पाठ
MADHUReciskeS-I
अभ्यर्हितात्मप्रगुणस्वभावं मलापहं श्रीविमलेशमीशं ।
पाले निधायाय॑मफल्गुशीलोद्धरप्रशक्त्यै जिनमर्चयामि ॥५४१॥ पूज्य आत्मगुणका स्वभावरूप अरु मलका दरि करनेवारा अरु पूज्य ऐसा विमलेश जिनेद्र. महान शीलका उद्धारको शक्ति निमित्त अपने पात्रमैं स्थापि मैं पूजू हूँ ॥५४१ ।।
ओं ही विमलजिनायाघम्। अनेकभाषा जगती प्रसिद्धा परंतु दिव्या ध्वनिरर्हतो वै।
एवं निरूप्यात्मनि तत्त्वबुद्धिमभ्यर्चयामा जिनदिव्यवादं ॥५५२।। इस जगतमं प्रसिद्ध अनेक भाषा है परंतु दिव्यभाषा अहंतकी ही है। ऐस निरूपण करि आत्मामै तत्वबुद्धि ऐसा दिव्यवाद जिनेंद्रन हप पूजे हैं ॥ ५४२॥
__ओं ह्रीं दिव्यवादजिनायाघम् ।। शक्तरपारश्चित एव गीतस्तथापि तद्व्यक्तिमिति लब्ध्या।
अनंतवीर्यंत्वमगाः सुयोगात्त्वामर्चये त्वत्पदघृष्टमूर्ना ॥ ५५३ ॥ चैतन्यकी शक्ति पार रहित ही गाई हैं तथापि लब्धिकरिता शक्तिकी ब्यक्तिने प्राप्ति होय है। याकारण तू सुन्दर योगत अनंत शक्तिले प्राप्त भयो यात तेरा चरणमें धरचो मस्तक जाने ऐसो में पूजू हूँ॥ ५४३ ॥
ओं ह्रीं अनंतवीर्यजिनाया निर्वपामोति स्वाहा । काले भाविनि ये मुतीर्थधरणात् पूर्वं प्ररूप्यागमे
विख्याता निजकर्मसंततिमपाकृत्य स्फुरच्छक्तयः। तानत्र प्रतिकृत्यपावृतमव संपूजिता भक्तितः
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