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प्रतिष्ठा
पाठ
१७४
PANCHA
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या अपार संसारकी गतिमें समाधिमरण नहीं पाया अरु जानै सो समाधि पाया ता समाधिगुप्त जिनेंद्रने पूजिकरि मैं भी समाधि पाऊं यानै मैं पूज हूँ॥५३७॥
ओं ही समाधिगुप्तिजिनायाघम् । स्वयं विनाऽन्यस्य सुयोगमात्मस्वशक्तिमुद्भाव्य निजस्वरूपे।
व्यक्तो बभूवेति जिनः स्वयंभूर्दध्यात् शिवं पूजनयानयाज़ः ॥ ५३८ ॥ अरु जो अन्यका योग विना आपही अपनी शक्तिने प्रगट करि आपका स्वरूपमें प्रगट होतो भयो सो स्वयंभू जिन इस पूजाकरि पूजित र भयो संतो मोक्षने देवो ॥५३८॥
ओं ही स्वयंभूजिनायाघम् । कंदर्पनाम स्मरसद्भटस्य मुधैव नामेति तदर्दनोद्घः ।
प्रशस्तकंदर्प इयाय शक्तिं यतोऽर्चयेऽहं तदयोगबुद्धयै ॥ ५३९ ॥ कामरूप सुभटका कंदर्प नाम वृथा ही है क्यूंकि येह जिन ताका पीडनमें समर्थ प्रशस्त कदप होय आत्मशक्तिने मास होतो भयो ताकू मैं कंदपको प्रयोग हो ऐसी बुद्धि अथि पूजू हूँ॥५३६॥
ओं हों कंदपजिनायाघम् । अनेकनामानि गुणैरनंतैर्जिनस्य वोध्यानि विचारवद्भिः।
जयं तथा न्यासमथैकविंशमनागतं संप्रति पूजयामि ॥ ५४॥ जिनद्रका अनंत गुणनिकरि अनेक नाम ज्ञानी पुरुषने जानवे योग्य हैं, तातें जयनाथ तथा न्यास नामक इकवोसमां अनागत जिनेंद्रने अबार पूज हूँ॥५४०॥
ओं ह्रीं जयनाथजिनायाघम् ।
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