________________
A
प्रतिष्ठा
AGAROSAROLCASIAS
धरणेशभवं भवभावमितं जलजप्रभमीश्वरमानमताम् ।
सुरसंपदियति न केति यजे चरुदीपफलैः सुरवासभवैः॥ ५..॥ धरणेश नाम राजाका पुत्र अरु संसार-भावन प्राप्त अर रक्तकमल चिह्नका धारक ऐसा पद्मप्रभ जिनने पूजन करता पुरुषनकै देवनकी हैं| संपदा कहा प्राप्त नहीं होय ? याते स्वर्गके चरु दीपक फलादि करि पूजू हूँ॥५०॥
__ओं हो पामभजिनेंद्रायाघम् । शुभपार्श्वजिनेश्वरपादभुवां रजसां श्रयतः कमलाततयः।
कति नाम भवंति न यज्ञभुवि नयितुं महयामि महध्वनिभिः॥५०१॥ इहां सुपाश्च नाथ जिनका चरणसे उत्पन्न रजनको आश्रय करनेवारेनकै कौनसी लक्ष्मीकी संतान नहीं होय है? ताते इस यज्ञ पृथ्वी मैं उत्सव शब्द करि प्राप्त होवेकू पूजू हूं ॥५०१॥
___ ओं ह्रीं सुपार्थ नाथजिनेंद्रायाघम् । मनसा परिचिंत्य विधुः स्वरसात् मम कांतिहतिर्जिनदेहघृणेः ।
इति पादभुवं श्रितवानिव तं जिनचंद्रपदांबुजमाश्रयत ॥५०२॥ चंद्र है सो निश्चयतें अपना मन करि चिंतन करि कि म्हारा कांतिको हरण जिनेंद्रका देहकी किरणत है, याहीत ही चरण पीठमैं प्राश्रित होतो भयो ऐसा चंद्रप्रभजिनका चरणारविंदकू आश्रय करो ॥५०२॥
___ों ही चंद्रप्रभजिनाय अर्घम् । सुमदंतजिनं नवमं सुविधीतिपराहमखंडमनंगहरं। शुचिदेहततिप्रसरं प्रणुतात् सलिलादिगणैर्यजतां विधिना ॥ १०३॥
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org