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प्रतिष्ठा
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मूर्छा परिग्रह अरु मूर्छा अपरिग्रहरू गुरु लघु मे द्विनकार दिखायो जिनसंबंधी मार्ग स्वर्ग मोदका गृहका द्वारने दिखावेवारो अतिशय करि सेवन योग्य है । अरु ये ही उत्तम अथवारेनन विघ्नका हनवेको विधिमैं प्रशस्त कथा, सो मैं पूज्य तिस धर्म यज्ञका विधानसिद्धअपू हूं ॥ ४६० ॥ ऐसें केवली प्रणीत धर्मकू अर्ध देना ।
केवलज्ञ मंगलायाघम् । येषां पादस्मृतिसुखसुधायोगतस्त
प्रापुः पुण्यं यदवनतिना जन्मसार्थ लभंते । लोकाधात्र्यां वनगिरिभुवश्चोत्तमत्वं जिनेंद्रा
यज्ञप्रसवावधिषु व्यक्तये मुक्तिलक्ष्म्याः ॥ ४६१ ॥
बहुरि जिनका चरण स्पर्शन सुखरूप अमृतका योगत पृथ्वी विषे वन पर्वत की पृथ्वी है ते तीथ नाम पुण्यरूपो प्राप्त भये अरू लोक जिनका नमस्कार दर्शनादि कर अपना जन्म सार्थक माने है अरु उत्तमपणाने माने है, ऐसी मानलक्ष्मीको प्रगटता के अर्थ इस विधि अतलोकोहूं ॥ ४६ ॥ श्रहतलोकोत्तमके अर्थ अ देनालोकोत्तमेभ्योऽर्घम् । दृष्टिज्ञानप्रतिभतया कर्ममीमांसाऽन्यान्
श्व संपादयति विविधा वेदनाः संकरोति ।
तेषां मूलं निविडपरमज्ञानखड्गे नहत्त्वा
निःकर्मत्वं समधिगतवानर्च्यते सिद्धनाथः ॥ ४६२ ॥
बहुरि येह कर्म सम्यग्दशन सम्यग्ज्ञानका वैरी है, तार्तं विचारि विचारि तोत्र मंदादि अध्यवसायके भेद अन्य प्राणोननं नरकमै पटक है। अरु तीव्र नानाप्रकार वेदनानें करें है। अर सिद्ध परमेष्ठी हैं सो सवन ज्ञानरूप खड्ग करि तिनि कर्मनिका मूल रागद्वेषनै हनि करि निःकर्म अवस्था प्राप्त भया, यातँ मैं नें पूजिये है । । ४६२ ॥ ऐस सिद्धलोकोचपनें अर्घ देना ॥ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमायाम् ।
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पाठ
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