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प्रा. बहुरि मैं भुजा विष रि किया है दुष्ट बरोको पराक्रम जान अरु सुन्दर सम्पग्दशन को चिट्ठ ऐसों अनवरल ही नवनिधि करि सुवर्ण - || मैं मंडित अरु गूथ्यो ऐसा केयूर बाहुबंध. धारूहूँ ॥ ऐसें भुजबंध पहरना ॥ ४३१॥
यज्ञार्थमेवं सृजतादिचक्रेश्वरेण चिन्हं विधिभूषणानां ।
यज्ञोपवीतं विततं हि रत्नत्रयस्य मार्ग विदधाम्यतोऽहं ॥ ४३२ ॥ इति यज्ञोपवीतधारणं। बहुरि मैं यज्ञादि विधानके अर्थ रचनाकर्ता आदि चक्रवर्तीन विधिवेत्ता पुरुषनका चिद्रूप ऐसा अरु वितत अर रत्नत्रयका मार्गरूप ऐसा ५|यज्ञोपवीत धारण करूं हूँ। ऐसें जनेऊ धारना॥ ४३२॥
अन्यैश्च दीक्षां यजनस्य गाढं कुर्वद्भिरिष्टैः कटिसूत्रमुख्यैः ।
संभूषणे झ्षयतां शरीरं जिनेंद्रपूजा सुखदा घटेत ॥ ४३३ ॥ इति कटिभूषादिधारणं।। बहुरि और भी जिनयज्ञकी दीक्षाने गाढी करनेवारे इष्ट कटिमेखला आदि भूषण करि शरीरकू आभूषित करनेवारेनकै जिनेंद्रकी पूजा सुखदायक होय है।ऐसें कहि कटिसूत्रकूधारण करना ॥ ४३३ ॥ अब यज्ञका प्रारंभ कर है:
विधेर्विधातुर्यजनोत्सवेऽहं गेहादिमूर्छामपनोदयामि ।
अनन्यचेताः कृतिमादधामि स्वादिलक्ष्मामपि हापयामि ॥ ५३॥ तहां संकल्प नियम यह है कि मैं सकल विधिका विधान करनेहारा जिनंद्रका यज्ञात्सवमै गृहवस्तु आदिकी मूळ. दूरि करूं । मरू एकाग्रचित्त करि ये काय करूंगा। अरु स्वगकी संपदा भी इस कालमै तुच्छ जानि छोडूहूँ॥ ऐसें नियप है॥ ४३४॥
इति यजननियमांगीकारः।
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