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अथ यंत्रमंत्राधिकारः॥१॥ अब यंत्र मंत्रनिका अधिकार कहिये हैं-पूर्व विनायकं विघ्नापहरापरनामकं उद्धार्यते ॥१॥
मध्ये तेजस्ततः स्याद् वलयमयधनुः संख्यकोष्ठेषु पंच
पूज्याद्यान् स्थाप्य वृत्त तत उपरितने द्वादशांभोरुहाणि । तत्र स्युमंगलान्युत्तमशरणपदान्याद्यसिद्धा महर्षि
धर्मप्रख्यातभांजि त्रिभुवनपतिना वेष्टयेदंकुशाढ्यं ॥ ३८२ ॥ तहां प्रथय विनायक यंत्र सो ही शांति-यंत्र है अरु सो ही विघ्नहर-यंत्र है, कि मध्याम ॐकार बाके वलय कोष्ठ पांच करना, ताप । 'असि आउ सा' लिख । पीछे तृतीय वनय, तामें द्वादश कोठा, तिनम अरहंत मंगनादि द्वादश मंत्र लिखै। पोछ होकार वेष्टन क्रों' करिव रोकन कर ॥ ३२॥ अब याका फल कहें हैं
यंत्रं विनायकपदं विनयार्थमूलं सर्वेषु मंगलविधिष्वनुयोज्यमानं ।
प्रत्यूहजालमपहाय समाप्तिमेति शास्त्रेप्रतिष्ठितविधौ च विवाहकार्ये ॥ ३८३॥ यह विनायक नामक यंत्र विनयकरि सिद्ध होय है। मुख्यता करिशास्त्र की रचनाका आदिमैं अरु प्रतिष्ठा-विधानमैं अरु विवाह-कायमै कहा है॥३३॥
(विनायक यंत्रका आकार पृथक् दिया है )
- अथ शांतियंत्रोद्धारः ॥२॥ अब शांतिदायक यंत्रकों कहें हैं
स्थाप्यं ब्रह्मपदं ततोऽपि वलयेऽनादि प्रसिद्धाक्षरं
तस्मादूर्ध्ववृते चतुर्युतसुविंशास्तीर्थनाथास्ततः।
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