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भतिष्ठा
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तुम्हे गुणगणसद अयाणमाणेण जं मए वृत्ता । दिंतु मम बोहिलाहं गुरुभत्तिजुदत्थश्र णिच्चं ॥ १० ॥ हे आचार्य महाराज ! मुझ अज्ञानीने जो आपके गुणोंकी स्तुति की है वह गुरुभक्ति होनेके कारण मुझे बोधिलाभ दे ॥ १० ॥ इच्छामि भंचे आइरियभत्ति काओसग्गो कओ तस्सालोचेओ सम्मणाणसम्मदंसणसम्म चरिचजुचाणं पंचविद्याचाराणं आयरियाणं आयारादिसुदणाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं तिरयणगुणपालणरयाणं सव्वसाहूणं णिच्चकालं अमि पूजेमि बंदामि नमस्सामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाओ सुगड़गमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं ॥
अभीष्ट अर्थ कहता हूँ । आचार्य भक्ति करनेके लिये कायोत्सग करता हूँ । सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्रसे भूषित, पंच प्रकारके आचार पालनेवाले आचार्योंको श्रुत ज्ञानके उपदेशक उपाध्यायोंको, रत्नत्रयके पालनमें निरत रहने वाले सर्व साधुपरमेष्ठियोंको सदा पूजता हूँ, नमस्कार करता हू, हे आचार्य महाराज ! मेरे दुःखोंका नाश हो, कर्मोंका क्षय हो, बोधिकी प्राप्ति हो, सुगतिमें गमन हो, समाधिमरणकी प्राप्ति हो, और मुझे जिनेंद्र भगवानके गुणोंकी संपत्ति मिले ॥
अब योगभक्ति कही जाती है
इस प्रकार आचार्य भक्ति पूर्ण हुई।
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अथ योगभक्तिपाठः ।
थोसामि गणधराणं श्रणयाराणं गुणेहिं तच्चहिं । अंजुलिमउलियहत्थो अहिबंदंतो सविभवेण ॥ १ ॥
मैं मुनिराजों के समस्त गुणोंसे अलंकृत गणधर महाराजको मस्तक पर हाथ लगाकर नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
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पाठ
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