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प्रतिष्ठा
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ऐस मंत्र पढ़ि फल स्थापन करना
ओं ह्रीं अद्य विंबप्रतिष्ठत्सवे वेदिकाशुद्धिविधाने अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुमंगललो कोचमशरणेभ्यो फलानि निर्वपामीति स्वाहा । फलानि ।
द्रव्याणि सर्वाणि विधाय पावे ह्यनर्घमघं वितरामि भक्त्या । भवे भवे भक्तिरुदारभावाद्यषां सुखायास्तु निरंतराया ॥ २७२ ॥
बहुरि पूर्वोक्त सर्व द्रव्य पात्र धारण करि बहुमूल्य अर्घ जो ताहि मैं चढाऊं हूं जाकरि उदार भावत उत्पन्न हुई मेरें भक्ति है सो भव भव निर्विघ्नके अथि होउ ऐस अघ चढ़ावना ॥ २७२ ॥
ओं ह्रीं अद्य विंबप्रतिष्ठोत्सवे वेदिका शुद्धिविधाने अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधु मंगल लोकोत्तमशरणेभ्यो अर्धं निर्वपामीति स्वाहा । अर्धं ।
इति अष्टप्रकार पूजा |
समुदायरूप करि प्रत्येक असो अस
अनादिसंतानभवान् जिनद्रानर्हत्पदेष्टानुपदिष्टधर्मान् ।
ar श्रिया लिंगितपादपद्मान् यजामि वेदीप्रकृतिप्रसत्त्यै ॥ २७३ ॥
अनादिकालके संतानतै उत्पन्न अरु अरहंत पदमैं इष्ट उपदेश कियो है धर्म जिनमें ऐसे जिनेंद्र जे हैं तिननैं वेदीकी प्रकृतिकी प्रसन्नता निमित्त मैं यजन करू हू कैसे हैं जिनेंद्र ? दोय प्रकार-अतरंग अरु बहिरंग लक्ष्मी करि आलिंगन किये हैं चरण कपल जिनके ॥ २७३ ॥ ओं हूँ। उद्भिन्नानंतज्ञानगभस्ति संदृष्ट लोकालोकानुभावान् मोक्षमार्ग प्रकाशनानंतचिद्रूपावलासान् अईत्परमेष्ठिनः संपूजयामि स्वाहा ॥ अर्धं ॥
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पाठ
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