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प्रविष्ठा ९.१
ऐसें अरहंत शरणके अर्थ अघ दना
अरहंतशरणायार्घम् ।
निर्व्याबाधगुणादिक प्राग्र्यं शरणं समेतचिदनंतं ।
सिद्धानाममृतानां भूत्यै पूजेयमशुभहान्यर्थम् ॥ २८७ ॥
व्यावाध आदि गुणनि करि प्रसिद्ध अरु चैतन्यालंकृत अरु मृत्यु करि रहित असे सिद्धनिका शरण जो है ताहि अशुभकी हानि निमित्त संपदाके अर्थ पूज हूं ॥ २८७ ॥
ऐसें सिद्ध शरण के अर्थ अघ देना
ह्रीं सिद्धशरणायाम् ।
चिदचिभेदं शरणं लौकिकमाप्यं प्रयोजनातीतं ।
त्यक्त्वा साधुजनानां शरणं भूत्यै यजामि परमार्थम् ॥ २८८ ॥
शरण चैतन्य अचैतन्य-रूप लौकिकनै भजनीय अरु प्रयोजन व्यतीतकू छोड़ि करि साधुजनका शरणनैं परमार्थभूतनें यजन करू हूं ॥ २८८ ॥
ऐसें साधुशरण के अर्थ अर्घ देना
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साधुशरणायाम |
केवलिनाथमुखोद्गतधर्मः प्राणिसुखहितार्थमुद्दिष्टः । तत्प्राप्त्यै तद्यजनं कुर्वे मखविघ्ननाशाय ॥ २८६ ॥
केवली जिनराजका मुखारविंदतै उत्पन्न अरु प्राणीनका सुख-हितके अर्थि उपदेश किया ऐसा धर्म जो है, ताहि यज्ञके विघ्नका नाशिके अर्थ पूजन करू हूं ॥ २८६ ॥
ऐसें केवली -प्रणीत धर्म की शरणके अर्थ अर्घ देना
केवलिम शरणायार्थ म् ।
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पाठ
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