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प्रतिष्ठा.
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बूरं भजंति देशं साधुयोऽर्च्यते विधिना ॥ २८० ॥
जाका दर्शन का किया प्रभावतें रोग उपद्रवनिके गण हैं ते जसे सिंह मृग दूर भाजै तैसें दूर देशनतें आश्रय करें हैं, ऐसे साधु मंगल हैं सो विधि करि पूजिये हैं ॥ २८० ॥
ऐसे साधु मंगल अर्थ अर्घ देना
साधु गलाया।
केवलमुखावगतया वाण्या निर्दिष्टभेदधर्मगणं ।
मत्वा भवसिंधुतरीं प्रयजे तन्मंगलं शुद्धयै ॥ २८९ ॥
मैं श्री केवलीका मुख निर्गत दिव्यध्वनि करि दिखायौ है मुनि श्रावक भेद-युक्त धर्मको गण जो है, ताहि भवसागरको निदान मानितिहि मंगल शुद्धि निमित्त पूज हूं ॥ २८९ ॥
ऐसे केवली -प्रणीत धर्म के अर्थ अर्घ देना
केवलज्ञप्ति म गलायाघ म् ।
लोकोत्तममथ जिनराडू पदाब्जसेवनममितदोषविलयाय ।
शक्तं मत्वा धृतये जलगंधैरीडितुं प्रभवे ॥ २८२ ॥
लोकोत्तम ऐसे जिनराजका चरणबिंदकौ सेवन है सो समस्त दोषनिका विनाशके अर्थ समर्थ मानि आत्मधृति निमित्त जल-गंधादि - कनि करि पूजन करनेकू समर्थ हुवो हूं ॥ २८२ ॥
ऐसे केवली -प्रणीत धर्म के अर्थ अघ देना
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श्रीं ह्रीं अरहंतलोकोत्तमायाघं ।
सिद्धाश्च्युत दोषमला लोकाग्र्यं प्राप्य शिवसुखं व्रजिताः । उत्तमपथगा लोके तानर्चे वसुविधार्चनया ॥ २८३ ॥
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