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प्रतिष्ठा
८७
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कर्माष्टनाशाच्च्युतभावकर्मोद्भृतीन् निजात्मस्वविलासभूपान् ।
सिद्धाननं तांत्रिककालमध्ये गीतान् यजामीष्टविधिप्रशक्त्यै ॥ २७४ ॥
निजाष्टगुणगणोघूर्णान्
प्रगुणी
कर्म का नाश खिर गये हैं कम निके उदय जिनके, अरु निज कहिए अपनो स्वभाव - परिणतिका विलासके भूपति अरु अनंत अरु भूत-भविष्य वर्तमान रूप तीन कालम वतते ऐसें सिद्ध परमेष्ठीनन में इष्ट विधानकी प्राप्तिके अर्थि यजन करू ं हू ं ॥ २७४ ॥ ॐ ह्रीं द्विविधकर्मतांडवापनोदविलसत्स्वाकारचिद्विलासवृत्तीन् भूतानंतमाहात्म्यान् लोकखरावस्थायनः सिद्धरमेष्ठिनोऽर्चयामि स्वाहा ॥ अधं ॥ ये पंचधाचारपरायणानामग्रेसरा दीक्षणशिक्षिकासु । प्रमाणनिर्णीत पदार्थसार्थानाचार्यवर्यान् परिपूजयामि ॥ २७५ ॥
जे पंच प्रकारके आचरणमै निपुण हैं, तिनम अग्रेसर अरु दीक्षा- शिक्षा देने निपुण अरु प्रमाण करि निर्णय किये हैं पदार्थनिका समूह जिननें, ऐसे आचार्यनमें मुख्यनैं मैं पूजूं हूं ॥ २७५ ॥
ॐ ह्री व्यवहाराधाराचारवत्त्वाद्यनेकगुणमणिभूषितोरस्कान संघप्रतिसार्थवाहानाचार्यवर्यान् परि पूजयामि स्वाहा ॥ अर्धं ॥
अर्थश्रुतं सत्यविबोधनेन द्रव्यश्रुतं ग्रंथविदर्भनेन ।
येऽध्यापयंति प्रवरानुभावास्तेऽध्यापका मेऽर्हणया दुर्हतु ॥ २७६ ॥
मतिज्ञानका जाननपणा करि अर्थरूप श्र तर्ने अरु ग्रन्थनका पठन पाठन तथा रचना करि द्रव्यश्रु त जो है, तानें जे पढावें असे प्रवर अनुभवमें प्राप्त भये उपाध्याय परमेष्ठी मेरी करी अर्हणा पूजा करि प्रसन्न होऊ ॥ २७६ ॥
ओं ह्रीं द्वादशांगतां निधिपारंगतान् परिप्राप्तपदार्थस्वरूपान् उपाध्याय परमेष्ठिनः पूजयामि स्वाहा ॥ अर्धं ॥
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पाठ
८७
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