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अथ मंदिरनिमाणविधिः। अब मन्दिरका बनानेको विधि कहिये है
शुद्धे प्रदेशे नगरेऽप्यटव्यां नदीसमीपे शुचितीर्थभूम्यां।
विस्तीर्णगोन्नतकेतुमालाविराजितं जैनगृहं प्रशस्तं ॥ २५ ॥ शुद्ध स्थानमें तथा नगरमें तथा वनमें तथा नदीका समीपमें तथा तोकी भूमिमें विस्तारयुक्त शिखर अरु केतुको पंक्तिकरि शोभायमान, ऐसा जिनभवन प्रशस्त होय है ॥ १२॥
शुद्ध मुहूर्ते किल वास्तुशांतिं विधाय सीमानमकालदोषं ।
खनेत्सुवर्णोद्धृतयंत्रपीठं निवेश्य तद्द्वारसमीपवति ॥ २६ ॥ मुहूर्त शुद्ध देखकरि प्रथम वास्तु शांतिका विधानकरि कालका दोषने रिकरि सोमा ज्यो ताहि खोद ताका द्वार सपोप सुंदर पत्रमें यंत्रने निवेशन करै॥ १२६ ॥
स्थानं परीक्षां च दिशां च साधनं वस्त्वचनं मंडललेखनार्चने।
गावानिवेशो भुवनस्य लक्षणं शैलानयश्चेति तदष्टधा मतं ॥ स्थानकी परीक्षा १ दिग्साधन २ वास्तुशुद्धि ३ मंडल शुद्धि ४ मंडल शांति ५ पापाण स्थापन ६ गृहलक्षण ७ शिलानयन ८ या प्रकार ए वास्तु कर्म आठ प्रकार है ॥ १२७॥
जलाशयारामसमगूशोभा वाल्मीकजंतुप्रविचारवा।
कीलास्थिदग्धाश्मविवर्जिता भूरन प्रशस्या जिनवेश्मयोग्या ॥ । अरु इहां प्रतिष्ठा कर्ममें पृथ्वी, जलका प्राशय--कूप, वापिका, तड़ाग, नदी आदि, बगीचा वृक्षसमूह इन सपस्त करि शोभित अरु
वल्मीक अरु जंतु कीटकादिके संनिवेशसे शून्य अरु श्मशान शूली आदिके स्थाननिसे रहित अथवा दग्ध पाषाणों से रहित पृथ्वी जिनेन्द्र || * भवनके योग्य प्रशंसनीय होय है ॥२२८॥
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