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निर्हेतुबंधो ! सुकृतानुभावात् संप्राप्तजन्मा सुकुले सुगोल। नरत्वमासाद्य यथार्यदेशे क्षेत्रेऽथ काले जिनधर्ममाप ॥ ३५ ॥ न्यायेन पित्रा धनमर्जितं मे मह्यं प्रदत्तं च मयार्जितं यत् ।
तदात्मनीनं कतिचिद्विधं स्त्रीपुत्राद्यनुज्ञातमुपस्पृशामि ॥ ३६ ॥ यजमान प्रभात समय गुरु-पूजननिमित्त अर्घ ने पात्रमें लेय नानापकार वादिनको बजाय यात्राकरि प्रतिष्ठाचार्य वा मुनि समीप पस्तक | नमाय पृथ्वीने स्पर्श करतो संतो बीनतो करे कि-हे अकारण बांधव ! में कोई पूर्वोपार्जित पुण्यका प्रभावत सुदरकुलमें शुभगोत्रमें जन्म प्राप्त भयो अरु आर्यदेशमें इस क्षेत्रमें मनुष्यभव पाय इह जिनधर्म प्राप्त भया । अरु न्यायोपाय करि जो मेरा पिताने धन उपार्जन किया पर मेरा अर्थि दिया तथा मैने उपार्जन किया सो धन आत्महितकरि अरु स्त्री-पुत्र-मित्रादि करि माज्ञा दियो ऐसो कितनेक संख्यावानने सुकृतार्थ लगायो चाई ॥२३४-२३६ ॥
जानामि लक्ष्मी कुलटां तथाहि स्त्रीपुत्रमित्राणि वियोगभांजि ।
आयुश्चलं नश्वरमेव गात्रं वियोगमूला परिषद्विभूतिः ॥ ३७॥ अरु स्वामिन् तथापकार मैं या लक्ष्मीन कुलटा स्त्रीवत् जानूहूँ। अर स्त्री-पुत्र-मित्रनकू वियोगके भजनवारे जानू । अर बापुडू चंचल पर शरीरकू विनश्वर जानूहूं पर परिवार संपदाकू वियोगमूल जानू हूँ॥२३७॥
चक्रेश्वराणां महनीयसंपदपेक्षया मे कतिधानुभूतिः।
यथांबुधेः कूपजलं कियद्वा शकः क्व वा मे प्रचरत्सहायः ॥ ३८ ॥ भर चक्रवर्ती प्रादिकी महदि विभूति ही स्थिर नहीं तो इसकी अपेक्षाकरि तो मेरे कितनीक संपदा है सो स्थिर हो? जैसे समुद्रका जल की अपेक्षा कूपका जल कितनाक होय ? तथा मागधादि कृतमालदेव पयत देव जिसकी सहायता करें, तिसकी अपेक्षा मेरे अप्रतिहत सहाव कौन है अर्थात् नहीं है ॥२१॥
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