________________
प्रतिष्ठा
CHARCOS4%
AEOLOG-A-
तथापि मेऽर्हत्सवनाभिलाषा वर्वति हास्यानुपबृंहणाय ।
अतो जनोऽयं भवदाज्ञयेव शास्यो भवेच्चेत्सुकृते समिच्छेत् ॥ ३६ ॥ तथापि हे स्वामिन् ! मेरे अरहतका पंचकल्याणकी कर्तव्यताका अभिलाषा वत है, सो हास्यका अनुपाणके कि वृद्धिके अर्वि है सो यो द में सारिखो नन आपकी आज्ञा मात्रही सहाय पाय शिक्षा करने योग्य हूँ यदि तो कल्याण पावूहूँ॥२६॥
यस्त्रेधहेतुः कृतकारितानुमोदव्यवस्थाप्रसराद विधत्ते ।
पुण्यांकुरं मोक्षफलप्रसूतिं विंब जिनेंद्रस्य निवेशनीयं ॥ ४०॥ अर जे पदार्थ तीन प्रकार मन वचन-कायसे हेतुरूप हैं, सो निश्चय करि कृत-कारित-अनुमतिकी व्यवस्थाका प्रचारतें पुण्यका अंकुरने अर मोक्षरूप फलकी प्रसूतिने देवे हैं। सो जिनेंद्रका विच है, सो ही निवेशन किया चाह हूँ ॥२४॥
इंद्रादिभिश्चक्रधरादिभिर्वा न शक्यमिष्टार्थविधानमुच्चैः।
तत्कल्पना काचिदपि त्वदीयपादाब्ज,गाय निवेदनीया ॥४१॥ अरु यो इंद्रादि चक्रवर्ति पर्यंतन करि प्रार्थित करिये तो सो विधान उच्चप्रकार इष्ट अर्थका विधानमें समर्थ नहीं होय है तात ताकी कल्पना अनिर्वचनीय है। आपका चरणारविंदका भ्रमर समान मेरे अर्थि संबोधित होने योग्य है । २४१ ॥
पिपासुना सौधसरो निदाघे ग्रीष्माकुलश्चाम्रतरं दरिद्रः।
निधिं समाश्रित्य सुखी न किं स्यात्तथा भवदृष्टिपथानुयायी ॥ ४२ ॥ ___ जैसे ग्रीष्मऋतुमें तृषाकुल पुरुष है सो अमृत समान मिष्ट सरोवरकू तथा ग्रीष्माकुल पुरुष आम्रका वृक्षक तथा दरिद्र पुरुष है सो निPाधिक आश्रित होय सुखी न होय कहा ? अपि तु होय ही होया तैसे आपका दृष्टिपथका शरणग्राही सुखी ही होय ॥२४२।।
एवंविनीतेन समर्थितोऽपि गुरुः प्रमाणीकृतसंस्तवादिः । सामर्थ्यसाकल्यविधि प्रशस्य निश्छद्मना तं प्रतिबोधमीयात् ॥ ४३ ॥
-
५८
RECROCE
Jain Educatio
n
al
For Private & Personal Use Only
Alibrary.org