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प्रतिष्ठा
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मत, आठ गुणास
सिद्ध परमेष्ठियाकहो , और जिनेंद्र में
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इच्छामि भंते सिद्धभाच काओसग्गो कओ तस्सालोचेओ सम्मणाणसम्मदसणसम्मचरिचजुत्ताणं है। | अट्टविहकम्ममुक्काणं अद्वगुणसंपण्णाणं उड्ढलोयमच्छयम्मि पयढियाणं तवसिद्धाणं णयसिद्धाणं संजमः | सिद्धाणं चरितसिद्धाणं सम्मणाणसम्मदसणसम्मचरित्तसिद्धाणं तीदाणागदवहमाणकालचयसिद्धाणं सव्वसिद्धाणं बंदामि णमस्सामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाओ सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। इति पूर्वाचार्यानुक्रमेण भावपूजास्तवसमेतं कायोत्सर्ग करोमि।। __ में अभीष्टार्थ कहता हूँ-सिद्ध भक्ति करताहू, कायोत्सर्ग सहित में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्रसे युक्त, पाठो काँसे है मुक्त, आठ गुणोंसे सहित, ऊर्ध्वलोकपर विराजमान, तपःसिद्ध, नयसिद्ध, चारित्रसिद्ध, सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्र सिद्ध, और भूत भविष्यत | वर्तमान तीनो कालवर्ती समस्त सिद्ध परमेष्ठियोंको बंदना करता हूँ, नमस्कार करता हूं। हे भगवन् ! मेरे दुःखका क्षय हो, कोका क्षय हो, बोधिलाभ हो, सुगतिकी प्राप्ति हो, समाधिमरणकी प्राप्ति हो, और जिनेंद्र भगवानके गुणोंकी संपत्ति मुझे मिले। मैं पूर्वाचार्योंकी परंपरासे चले आये क्रमसे भावपूजास्तवसहित कायोत्सग करता हूँ॥
अथ श्रुतभक्तिः। अब श्रुतभक्ति कहते हैं
अर्हद्वक्तप्रसूतं गणधररचितं द्वादशांगं विशालं ___चित्र बह्वर्थयुक्तं मुनिगणवृषभैर्धारितं बुद्धिमद्भिः। मोक्षायद्वारभूतं व्रतचरणफलं ज्ञेयभावप्रदीपं.
भक्त्या नित्यं प्रबंदे श्रुतमहमखिलं सर्वलोकैकसारम् ॥१॥ श्री महत भगवानने जिस शास्त्र का उपदेश दिया है, गणधर देवने जिसको बारह अङ्गों में रचा है, जिसका विशाल गभीर अथ है, जिसे
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