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प्रविष्ठा
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जिनके प्रष्ट कर्मोंसे जायमान समस्त मल नष्ट हो गये हैं, जिनका ज्ञान विशद-निर्मल है, और जो तीनों लोकोंके मुकुट मणिके समान हैं वे समस्त सिद्ध परमेष्ठी प्रसन्न हों ॥ ४ ॥
गमणागमणविमुक्के विडियकम्मपय डिसंघारा । सासह सुहसंपत्ते ते सिद्धा बंदियो णिच्चं ॥ ५ ॥
जिनका गमनागमन नष्ट होगया है समस्त कर्म प्रकृतियोंको जिन्होंने चूर्ण कर दिया है और जिन्होंने शाश्वत सुख पालिया है उन सिद्ध भगवानकी सदा वंदना करनी चाहिये ॥ ५ ॥
जयमगलभूदाणं विमलाणं गाणदंसणमयाणं । तइलो सेहराणं णमो सदा सव्वसिद्धाणं ॥ ६ ॥
जो जयमंगल रूप हैं, निर्मल हैं, दर्शनज्ञान मय हैं, तीनोलोकोंके मुकुट हैं, उन भगवानको सदा नमस्कार हो ॥ ६ ॥ सम्मत्तणाणदंसणवीरियसुहुमं तहेव श्रवग्गणं ।
अगुरुलघु व्ववाह ठगुणा होंति सिद्धाणं ॥ ७॥
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सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन, अगुरुलघु, अव्याबाध ये सिद्धोंके आठ गुण हैं ॥ ७ ॥ तवसिद्धे यसिद्धे संजमसिद्धे चरित्तसिद्धे य ।
गामि दंसणम्मिय सिद्धे सिरसा गमस्सामि ॥ ८ ॥
जो किसी भी तपसे सिद्ध हुये हैं, किसी भी नयसे सिद्ध हैं, जो किसी भी संयमसे सिद्ध हुये हैं, जो किसी भी चारित्रसे सिद्ध हुये हैं और जो चाहें जिस ज्ञान दर्शन से सिद्ध हुये हैं सब सिद्ध भगवानों को मस्तक नवाकर नमस्कार करता हूं ॥ ८ ॥ भावार्थ- समस्त ही जीव यद्यपि यथाख्यात चारित्र, और केवल ज्ञान पाकर हा सिद्ध होते हैं तथापि भूतप्रज्ञापन नयकी अपेक्षासे उनके तप चारित्र आदिमें भेद किया जासकता है अर्थात तपश्चर्या ग्रहण करते समय तेरहवे गुणस्थानसे पहिले उनके तप आदि में भेद था ही। इसलिये सिद्ध भगवानोंमें उक्त श्लोकसे भेद बतलाया गया है ॥ ८ ॥
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पाठ
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