________________
प्रतिष्ठ
REGISGASSx
SA-PRANICA%%
मुखं तु शकोत्तरपश्चिमासु कुर्याग्जिनेशालयकस्य मुख्यं ॥ ३३ ॥ मन्दिरके नीमकी पहिली चैतका महीना अर्थात् रात्रिदिनकी तुल्यतामें मध्य रेखाकूसाधन करै अर्थात् सूयछायाकी मध्यभागमें दिशाकी | तिरछापणाकी संगति मेटि मन्दिरका मुख पूर्व उत्तर कदाचित पश्चिममें भी राखे ॥१३३ ॥
अब मन्दिरकी रचनाका संनिवेश कर हैं कितत्क्षेत्र पंचविंशत्यवधिपरिमितं संविभज्यात्र मध्ये, निध्यंशे मध्यकाष्ठे जिनपतिनिलयं पार्श्वयोः सिद्धपाठ्यो। श्राचार्यश्चोर्ध्वभागे तदितरगृहयोरागमो धर्मतीर्थमगे साधुर्विधानालययजनपरिष्कारगेहं निवेश्यं ॥ १३४ ॥
कि-पन्दिर बनावणे योग्य चौखूटा क्षेत्रका पच्चीस अंश परिमित विभाग करि अर मध्यका नव अंशमें मध्यभागमें तो अरहन्तनिकी | स्थापना अर पार्श्ववर्ती दोन्यू कोष्ठमें सिद्धांका विब अर उपाध्यायका प्रतिविष अर ऊर्ध्व भागका कोष्ठमें प्राचाय परमेष्ठीका विच अर अन्य | गृहनिमें भागय अर निर्वाण क्षेत्र अर साधुपरमेष्ठी अर मंडलविधानका स्थान पर सामिग्री संपादन स्थान ऐसे नव कोष्ठक कराना ॥ १३४ ॥
पूर्वोत्तरं दक्षिणमस्य कार्य द्वार तथा पूर्वदिशासु नृत्य
गीतालयं चोत्तरमर्थशास्त्रसद्वाचनागेहमतः प्रशस्तं ॥ १३५ ॥ अरु याका द्वार पूर्वोत्तर अथवा दक्षिण भी द्वार होय तथा पूर्व दिशामें नृत्यसंगीतका स्थान अरु उत्तरमें शास्त्र स्वाध्यायका स्थान प्रशस्त कया है॥१३॥
पाश्चात्यभागे द्रविणालयादि विद्यालयं दक्षदिशि प्रदक्षिणा।
जिनालयादेः परितोऽत्र कार्या प्राचीनयंत्रोपमसंनिवेशतः ॥ १३६ ॥ अरु पाश्चात्यभागमें भंडार तथा दक्षिणकी तरफ विद्या शाला, अरु प्रदक्षिणा भूमि चौतर्फ ऐसे प्राचीन यंत्रका उपमा राखि संनिषेध करना ॥ १३६॥
e
%
EReso
Twidinelibrary.org
Jain Educati
o nal
For Private & Personal Use Only
.