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प्रतिष्ठा ५२
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अथ यज्ञविधानयोग्यक्षेत्रशुद्धिरुपदिश्यतं ।
अब प्रतिष्ठा के योग्य क्षेत्रकी शुद्धि कहिये हैं
मनोज्ञवर्णा सुरसा विशाला कार्कश्यवल्मीकशिलादिवर्ज्या । दग्धादिदोष रहिता जलाद्यारामादिसंस्था धरिणी प्रशस्ता ॥ १४ ॥
इस यज्ञमें भूमि ऐसी प्रशस्त हैं, मनोज्ञ वर्ण अर्थात गौरवर्ण सुन्दर रसवती अरु विस्तीर्ण होय अरु कंकर पत्थर बंबी शिला आदि प्राणिवाधक वस्तु-रहित होय, दग्ध नहीं होय; जल जहां सुलभ होय अरु बाग-बगीचा आदि जहां बहुत होय, ऐसी भूमि प्रशस्त होय है ॥ २१४ ॥ हो धरायामिह ये सुराश्च क्षमंतु यज्ञाधिकृतिं ददंतु ।
प्रीतिः पुराणा बहुवासयोगात् क्षितावतोऽस्मद्विनिवेदनं वः ॥ १५ ॥
र यज्ञकी भूमिमें जब प्रतिष्ठाकी रचना करे, उसके पहली प्रतिष्ठाचार्य वा प्रतिष्ठाकारक भूमिस्थ देव तिच मनुष्यनि प्रति क्षमापन कर, सो ऐसें है-अहो ! बड़ा हर्ष है, इस स्थानमें देव हैं ते क्षमा करो अरु यज्ञका अधिकार देहु, आपका बहुत कालका इहां निवास है अरु इस क्षेत्र पुरातन प्रीति है, इसी हेतु में निवेदन करू हू ॥ २१५ ॥
तद्वादशांशेषु जिनेंद्रगर्भगृहं तु मध्ये परिकल्पनीयं ।
तत्प्राचि सन्मंडलमुन्नतांगं क्रियाकलापोचितमाविधेयं ॥ १६ ॥
बहुरि उसी भूमिका बारमा हिस्सामें मध्य जिनेंद्र-गर्भ गृह करना । अरु ताका पूर्व-मंडप डा उन्नत जहां विधान होना होय सो
करना ।। २१६ ॥
प्रेक्षागृहं साधनिकागृहं तु तदप्रभूमावपि सव्यपार्श्वे ।
माहवनीयोद्धरणं सुदक्षे पार्श्वे सभा प्रश्नकृतां मनोज्ञा ॥ १७ ॥
अरु जाके अग्र दर्शनार्थी पुरुषनिके वास्तें द्वितीय मंडप करना, अरू ताका पार्श्व में सामग्री- संपादन-गृह करना अरु दक्षिणी पखवाड़ा में होम आह्वाननादिका उद्धार करना, अरु समीप ही प्रश्न-सभा करना बहुत मनोज्ञ ॥ २१७ ॥
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