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प्रतिष्ठा ३०
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प्रपन्नसाताप्रकृतेरुदीर्णोदयान्मनः प्राणभृतां शुभाय ।
कार्याय शीघ्रं यतते कृतौ तु देशीयराष्ट्रीयशुभप्रवृत्त्या ॥ २२ ॥
येह प्राणीनिका मन है सो प्राप्त भया साता कर्मका उदयतें शुभ कार्यके अर्थि शिष्ट प्रयत्नवान् होय है अर कृतिविषै देश राष्ट्र को शुभ प्रवृत्तिरि प्रयत्नवान् होय है ।। १२२ ।।
अस्मिन्महे राज्यसुभिक्षसंपदाद्यो हि हेतुः कथितो मुनींद्रेः । कलाविदानीं नृपभूतिरिष्टा मिथ्यादृशां नोदयमिष्टमव ॥
अर या जिनप्रतिष्ठाका उत्सवमें मुनीश्वरने प्रथम हेतु राज्य की अर सुमितको संपत्ति ही कहया है अर ई कलिकालमें नृपभूति कहिये राजाकी प्रसन्नता ही श्रेष्ठ है, मिथ्यात्वीनिका अर्थात् जनमार्ग विरोधीनिका उदय नाहीं इष्ट है ॥ १२३ ॥
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दुर्भिक्षस्तेयमारीपिशुन जनकृतोपद्रवाणां प्रवृत्तिभूयाद्धर्मनाशप्रणयनचटुलो भूपनाम्नाऽपि वैरी । पौनःपुन्येन शास्ता सकलमतिमतामग्रगामी सुपुण्यः
सूते शिष्टिं विशिष्टां बुधखलसमुदायेषु योग्यां यतोऽसौ ॥
याही हेतु दुर्भिक्ष अर चोर और मारी अर दुष्ट जनकृत उपद्रवनिको प्रवृत्ति कदाचित् भी मति होहु अर धर्मका नाशमें प्रवीण ऐसा राजा नामक वैरी भी कदाचित् मति होहु याही कारण वार वार सकल मतिमाननिमें अग्रगामी पुण्यवान् राजा होहु या कारण यो राजा पंडित अर दुर्जनजनोंके योग्य विशिष्ट आज्ञाने प्रगट करै तातें ॥ १२४ ॥
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पाठ
३०
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