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प्रतिष्ठा
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तेनेह जन्मसफलत्वमितं प्रकर्षादुद्भतिशक्रपदवी नियतं गृहीता ॥८॥ जा पुरुषने स्वयं कहिये आप पंचकल्याणकको विधि जो है सो अपना सत्त्व पराक्रम अरु कर्त व्यतारूप नियम प्राप्त कपका बखतें किया ताही जनने इह भवमैं जन्मका सफलपणा पाप्त कोया अरु उत्कर्षता करि बहु विभूतिमान इंद्र पदवी नियमपूर्वक ग्रहण की ॥१८॥
द्रव्यं वपुः स्थिरतरं नहि जातु कस्य राज्यं मनोज्ञसुरचक्रिनरेंद्रतादि।
___ तस्मादखंडभवकोटिसमुद्धरके स्थाप्यं जिनेंद्रभवनप्रतिमानमुच्चैः ॥९॥ देखो ! कोई पुरुषको द्रव्य कहिये धन अथवा शरीर स्थिर नहीं है, अरु मनोज्ञ देवपदवी, चक्रवर्ति विभूति, नरेंद्र संपदा आदि राज्य भी स्थिर नहीं तातें अखंड कोटि भवकू उद्धार करणेमें अद्वितीय एक जिने द्रको मन्दिर अरु प्रतिविव उच्च प्रकार स्थापन करना योग्य है १०६
कल्पे सुराणां भवनेऽसुराणां ज्योतिःकृतां व्यंतरसन्निकाये।
असंख्यपुण्योदयसेतुहेतु जिनेंद्रविंबं यदनादिकालं ॥१०॥ __ अरु ये भवन अथवा प्रतिबिंब देवनिका कल्पमें कि स्वर्गमें तथा असुरादि कुमारनिका भवनमें तथा ज्योतिषी देवनिका भवनमें तथा | व्यंतर देवनिका निकायमें है अर असंख्यात पुण्यका उदयरूप जाको कारण है, तातें जिनेन्द्रबिंब अनादिकालतें मान्य है ॥ ११०॥
भाव्यभावकसंबंधो विषयाः पुण्यहेतवः।
स्वर्गमोक्षसुखं तत्र फलं शक्यप्रतिक्रियं ॥ ११॥ इहां प्रतिष्ठामें भाव्य भावक कहिये सेव्य सेवक संबंध है अरु पुण्यके कारण सर्व याके विषय हैं । स्वर्ग मोक्षका सुखरूप फल है, शक्यानुष्ठान है ही॥१११॥
समस्तकार्ये प्रथमं विचार्यानुष्ठानमेवं विदधातु कर्ता।
यशःप्रवृत्तिः सुकृतोपपत्तिरनर्गला स्यात्कृतिकर्मकर्तुः॥ १२ ॥ ऐसे ये च्यारि वस्तु समस्त कार्यमें पहिली विचार करि कर्ता अनुष्ठान करो जाकरि यशकी प्रवृत्ति होय, अनर्गल पुण्यकी प्राप्ति काय | करनेवालाकै होय॥११२॥
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