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• पतुर्थपादः
* प्राकृत-ध्याकरणम् * प्रस्तुत सूत्र से कोई कार्य नहीं किया गया, किन्तु ९७४ सूत्र से ऊकार के स्थान में प्रव' यह आदेश किया गया है। बहलाधिकार के कारण कहीं पर प्रस्तुत सूत्रोक्त प्रदेशों के अतिरिक्त अन्य प्रादेश भी होते हैं। जैसे-१-उभयतिथ्य उसुमाइ (वह उत्पन्न होता है। २-भूतम्-भत्तं (हुमा) यहां पर भूधातु के ऊकार के स्थान में उकार तथा प्रकार ये प्रादेश क्रमशः किए गए हैं।
७३२---वित् (जिस में वकार इत् हो) प्रत्ययों को छोड़कर भूधातु के स्थान में है यह प्रादेश विकल्प से होता है। जैसे-~~-भवन्ति हुन्ति (वे होते हैं), २-भवन - हुन्तो (होता हुआ) यहां पर भूधातू को है यह प्रादेश किया गया है। प्रश्न उपस्थित होता है कि सरकार ने प्रविति' इस पद का क्यों ग्रहण किया है ? उत्तर में निवेदन है कि भवति होइ, मादि स्थलों में वित् (तिव) प्रत्यय होने पर भू धातु को कहीं यह आदेश न हो जाए, इस दरिद से सत्रकार ने वित्' प्रत्यय परे रहने पर इस प्रादेव का निषेध कर दिया है। - ७३३--भूधातु का कर्ता यदि पथक् और स्पष्ट हो तो इस धातु के स्थान में रिणवाट' यह प्रादेश होता है। जैसे- भवतिम्-णिवई (वह अलग होता है, या स्पष्ट होता है) यहाँ पर जो पृथक पौर स्पष्ट कर्ता का उल्लेख किया है, इसका अभिप्राय इतना ही है कि भूधातु का जब यह मक होता है अथवा यह स्पष्ट होता है ऐसा अर्थ होता है तभी इसके स्थान में रिंगबर यह प्रादेश होता है, अन्यथा नहीं । जैसे-वासको भवतियालयो होइ (बालक होता है यहां भू धातु का उक्त अर्थ न होने से प्रस्तुत सूत्र का कार्य नहीं हो सका।
___ ७३४-प्रभुकाक (जिस में प्रभु कर्ता हो) भूधातु के स्थान में 'हप्प' यह मादेश विकल्प से होता है। शिकार फरमाते हैं कि यदि भूधातु प्र-उपसर्ग पूर्वक हो तो उसका 'प्रभुत्व' यह अर्थ होता है। जैसे- अङ्ग एक में प्रभवति प्रगच्चिन न पहुप्पड(मन में ही वह प्रभु नहीं है,शारीरिक दृष्टि से शक्तिशाली नहीं है), पादेश के प्रभावपक्ष में--पम यह रूप बनता है।
७३५-- यदि क्त प्रत्यय परे हो तो भूधातु के स्थान में 'हू' यह प्रादेश होता है। जैसे----- भूतम्-हूयं (हुमा), २-अनुभूतम् =मराहूअं (अनुभव किया हुआ),३ प्रभूतम् = पहूयं (वहुत) यहां पर क्त-प्रत्ययान्त भूधातु को 'ह' यह प्रादेश किया गया है।
७३६-कृमि-कृग (डुकृञ्) धातु के स्थान में 'पुरण' यह आदेश विकल्प से होता है। जैसेकरोति कुणह, प्रादेश के प्रभावपक्ष में-करा यह रूप होता है।
७३७-काण (जिसकी एक प्रांख न हो) के ईक्षित (देखने) का विषय हो अर्थात् कानी दष्टि से देखना,यह अर्थ प्रभीष्ट हो तो कृग (डुकृञ्) धातु के स्थान में 'णिआर' यह प्रादेश विकल्प से किया जाता है। जैसे-कापेक्षितं करोति-णिग्रारइ (वह कानी. दृष्टि से देखता है) यहां पर कृग् धातु का णिधार यह वैकल्पिक प्रादेश किया गया है।
७३८ -निष्टम्भविषयक (जिसका अर्थ निष्टम्भ-निश्चेष्ट (चेष्टा रहित) करना हो) तथा अवष्टम्भविषयक (जिसका अर्थ-प्रवष्ट झुकने की क्रिया सहारा लेने को क्रिया या क्रोध प्रादि हो) कृग धातु हो तो उसके स्थान में यथासंख्य-संख्या के अनुसार जिद और संवाण ये दो आदेश विकल्प से होते हैं। अर्थात् निष्टम्भविषयक कृगि धातु को रिगाह और अवष्टम्भविषयक कृगि धातु को संवारण यह आदेश होता है। जैसे----१-निष्टम्भं करोति -णिछुहाइ (वह चेष्टा-रहित करता है), २.--अवष्टम्भं करोति-संदाणइ (वह झुकने या सहारा लेने की क्रिया करता है, क्रोध करता है) यहाँ