Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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नाहटाकी अर्धांगिनीको कुछ ही घंटोंमें विकराल, निर्दयी कालने कवलित कर घरका सुख, सार संभाल, नाहटाजीकी सेवा, देवर-ननदोंका आश्रय और स्नेह, सब कुछ छीन लिया। जिसने भी यह सुना वह रोया, घरके सब प्राणी आँसूकी नदी बहा रहे थे लेकिन श्री नाहटाजी प्रकृतिस्थ बने बैठे थे, मानों वे दुःखके इस कालकटको पी गये थे और ज्ञानजलसे मोहपंकको धो रहे थे। गीताकारकी भाषामें ऐसा व्यक्ति ही तो 'स्थितधी' कहलानेका अधिकारी है :
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः, सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीः मुनिरुच्यते । दुःखोंमें उद्वेगरहित, सुखोंमें स्पृहात्यागी, राग भय और क्रोधको निःशेष करनेवाला 'स्थितधी' मुनि कहा जाता है।
श्री नाहटाजीका व्यक्तित्व समन्वय-पाटवका विलक्षण उदाहरण है । आप व्यवसायकी दृष्टिसे व्यापारी, कर्मकी दृष्टिसे अध्येता, लेखक तथा रुचिकी दृष्टिसे अध्यात्म-प्रधान धार्मिक फक्कड़ संत हैं । ये तीनों ही स्वरूप प्रकृत्या परस्पर मेल नहीं खाते । व्यापारमें लक्ष्मीका निवास समझा जाता है। उसका लक्ष्य अधिकसे अधिक, येन केन प्रकारेण लक्ष्मीकी उपासना, उसका अर्जन और संरक्षण रहता है। जब कि लेखक और निरन्तर अध्येताका चित्त ज्ञानोन्मखी होता है। वह चिन्तनकी आदर्शवादितामें मस्त रहता है। और अध्यात्मका क्षेत्र तो इन दोनोंसे भी दूरका है । उसमें लोकैषणाको तनिक भी महत्त्व नहीं दिया जाता ।
श्री नाहटाजी कुशल व्यापारी, उच्चकोटिके अध्ययनशील लेखक और अध्यात्मसाधक संत हैं । प्रकृत्या विरोधी इन तीनों क्षेत्रोंकी एक व्यक्तित्वमें संहति कम आश्चर्यकी बात नहीं है। श्री नाहटा जैसे व्यक्तिका साहित्य और कलाप्रिय जीवन अत्यन्त व्ययशील है। वे चलते-फिरते हजारों रुपयोंकी कलात्मक चीजें खरीद लेते हैं: हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ तो छोड़ते ही नहीं। इस अभिरुचि में आपने लाखों रुपये व्यय कर दिये हैं और करते जा रहे हैं।
आपका ही कथन है कि "मैं जो भी कलात्मक वस्तु या प्राचीन पाण्डुलिपि खरीदता हूँ; वह बेचनेके लिए नहीं होती। ऐसी स्थितिमें आपका साहित्यकलाप्रेम व्ययसाध्य है; और संयुक्त व्यापारमें जब कि इतर पारिवारिक केवल व्यापारी हैं; आपके इस बहुल व्ययको, व्यापारके लिए समय अदानको और गार्हस्थमें विशेष रुचि न लेनेको किस प्रकार प्रश्रय देते आ रहे हैं और तब जबकि आप भाइयोंमें सबसे छोटे है; और आज्ञावशवर्ती है। लेखकने इसी जिज्ञासाको श्री नाहटाजीके सम्मुख प्रस्तुत किया। श्री नाहटाजीने बताया कि आरम्भमें घरवालोंको मेरा साहित्य साधनाका काम अच्छा नहीं लगता था। वे इस कामके प्रतिकूल भी थे। पिताजी-भाई और भ्रातपत्रोंकी यही इच्छा थी कि मैं एकान्तभावसे व्यापारमें लगा रहँ और घरकी श्रीवृद्धिको दिन दूनी रात चौगुनी करूं।
श्री नाहटाजीने कहा कि 'मेरे पारिवारिक अपनी विभिन्न रुचियोंमें हजारों-लाखों रुपये व्यय करते हैं; लेकिन मैं एक भी पैसा किसी अन्य रुचिमें व्यय नहीं करता; जो थोड़ा-बहुत व्यय करता, वह प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोंको खरीदने में अथवा कलात्मक वस्तुओंमें । मेरे इस भावका पारिवारिकोंपर अनुकूल प्रभाव पड़ा और उन्होंने मुझे हजारों रुपये खरचनेकी छूट दे दी।
मेरे साहित्यिक श्रमका लाभ जिज्ञासु छात्रों और विद्वानोंको भी मिलने लग गया था और मेरे पिताजी प्रभृतिने इसको 'परपरोपकार' समझा और मुझे इस काममें लगे रहनेकी आज्ञा प्रदान की।
१. यह दुःखद निधन दिनांक २ अगस्तको हुआ था।
जीवन परिचय : ५५
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