Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 692
________________ कपड़े (सम्भवतः धोती)के पल्लू के लिए अंशुकपल्लव शब्दका व्यवहार किया गया है (श्लो० ८५) । १४. स्त्रियों द्वारा शरीरके विभिन्न अंगों पर पहने जानेवाले अनेक आभूषणोंकी चर्चा प्रसंगवश अमरुशतकमें आयी है। कानोंमें कुण्डल पहने जाते थे (श्लो० ३) प्रतीत होता है कि कभी-कभी एक हो कानमें एकाधिक कुण्डल पहननेका रिवाज भी प्रचलित था (कुण्डल-स्तवक, श्लो० १०८)। श्लोक १६में कानोंमें पद्मराग मणि पहननेका उल्लेख है। बाँहोंमें बाजूबन्द (केयूर) पहनते थे (श्लो०६०)। वक्ष पर मोतियोंका हार (तारहार, श्लो० ३१; गुप्ताहार, श्लो० १३८) पहना जाता था। हार कामाग्निका ईंधन कहा गया है (श्लो० १३०)। हाथोंमें वलय पहननेका रिवाज था। पैतीसवें श्लोकमें प्रियतमके प्रवास पर जानेका निश्चय करनेपर प्रियतमके हाथसे दौर्बल्यके कारण बलयके ढीले हो जाने अथवा हाथसे वलयके गिर जानेका वर्णन बहुधा मिलता है और यह एक प्रकारका कवि समय बन गया था।' कमरमें करधनी पहनी जाती थी, जिसके लिए मेखला (श्लो० १०१) और काञ्ची (श्लो० २१, ३१, १०९) शब्दोंका व्यवहार किया गया है। यह कटिको अलंकृत करनेके अतिरिक्त धोतीको बाँधने अथवा सम्हालनेके काम आती थी (श्लो० २१, १०१)। करधनोमें घुघरू (मणि) भी बाँधे जाते थे, जिनसे कलकल ध्वनि होती थी (श्लो० ३१.१०९)। पैरोंमें नपर पहने जाते थे (श्लो० ७९. ११६. १२८)। क नूपुरमें भी धुंघरू बाँध देते थे जिनसे पैर हिलने पर मधुर ध्वनि निकलती थी (श्लो० ३१) । एक स्थलपर विशिखाका भी उल्लेख मिलता है (श्लो० १११) । जो कौटिल्यके अनुसार सुनारोंकी गलीके अर्थमें प्रयुक्त होता था। संदंशक अथवा संडसीका भी उल्लेख आता है जिसे सुनार अपने व्यवसायमें काममें लाते होंगे। श्लो० ५९में चन्द्रकान्त और वन (हीरा)का उल्लेख आया है । वज्र अपनी कठोरताके लिए प्रसिद्ध था और फलस्वरूप कठोर व्यक्तिके लिए वज्रमय शब्दका प्रयोग प्रचलित था। फूल और पत्ते भी विभिन्न आभूषणोंके रूपमें पहने जाते थे । इस रिवाजका उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्यमें बहुधा मिलता है। अमरुकने फलोंकी माला (श्लो० ९०) और कानोंमें मञ्जरी समेत पल्लवोंके कनफूल (कर्णपूर), जिसके चारों ओर लोभसे भौंरे चक्कर लगाया करते थे (श्लो० १) पहननेका उल्लेख किया है। १५. केश विन्यासकी विभिन्न पद्धतियाँ प्राचीन भारतमें प्रचलित थीं। इनमेंसे अमरुशतकमें धम्मिल्ल (श्लो० ९८, १२१) और अलकावलि (श्लो० १२३)की चर्चा की है। धम्मिल्ल बालोंके जूड़ेको, जो फूलों और मोतियों इत्यादिसे सजाया जाता था, कहते थे। यह प्रायः सिरके ऊपरी भागमें बांधा जाता था। इसका उल्लेख भारतीय साहित्यमें बहुधा आता है। कलामें भी इसका चित्रण प्रायः मिलता है।५ अमरुकने धम्मिल्लके मल्लिका पुष्पोंसे सजानेका उल्लेख किया है (इलो० १२१)। १. द्रष्टव्य-मेघदूत, १०२; अभिज्ञानशाकुन्तल, ३-१०; कुट्टनीमत, २९५ । २. कोक सम्भवने ८७वें श्लोककी टीकामें नूपुरोंको पुरुषोंके लिए अनुचित कहा है। ३. तुलनीय, धम्मिल्लः संयताः कचाः, अमरकोश, २०६-९७ । ४. द्रष्टव्य-भर्तृहरिका शृङ्गारशतक, श्लो० ४९; गीतगोविन्द, २; चौरपञ्चविंशिका, ७९। डॉ० वासदेव शरण अग्रवालके अनुसार धम्मिल्ल सम्भवतः द्रविड़ था द्रमिड़ या दमिल शब्द से निकला है। द्रष्टव्य हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० ९६ । ५. पन्त प्रतिनिधि, अजन्ता, फलक ७९; एन्शिएण्ट इण्डिया, संख्या ४, फलक ४४ । भाषा और साहित्य : २०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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