Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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बैठे अतः पराजित हुए।' इसीलिए महर्षि विश्वामित्रके सन्देह प्रकट करनेपर देवराज इन्द्रने भी कहा कि 'हे ऋषे ! मै प्राण हूँ, तुम प्राण हो, चराचर दृश्यमान जगत् सब प्राण हैं ।"
इस प्रकार जो प्राण शब्द वैदिक साहित्यमें श्वासके अर्थ में आरण्यकों एवं उपनिषदोंमें एकताके प्रतीकके रूपमें, शारीरकशास्त्रमें जो इन्द्रियों, शीर्षरंध्रोंके बोधकके रूपमें तथा वागिन्द्रिय व रसनेन्द्रियके रूप में देखा गया, वह वस्तुतः अन्वर्थतया जीवनाधायक है। 3 परवर्ती साहित्यमें इसके चिन्तनका श्रेय केवल योग शास्त्रको ही मिला, जिसमें यमादि अष्टाङ्गोंमें प्राणायामको विशेष स्थान दिया गया । 'प्राणवायोनिरोधनमेव विशेषतो नियमेन प्राणायाम इत्युपचर्यते।' अर्थात् विशेषविधिसे प्राणवायुके निरोधको ही प्राणायाम कहते हैं। प्राण निरोध प्रक्रियासे जन्य अदभत चमत्कार आज भी लोगोंको आश्चर्यमें डाल देते हैं । अस्तु-विषयको गम्भीरता स्पष्ट है । 'हस्वस्यावर्णस्य प्रयोगे संवृतम्, प्रक्रियादशायां त विवृतमेव' (सिद्धान्त कौमुदी) की भाँति प्रस्तुत विषयसे सम्बद्ध शब्दात्मक ज्ञान चाहे जितना प्रस्तुत कर दिया जाय किन्तु व्यावहारिक ज्ञान अत्यन्त जटिल एवं आचार्यपरम्परागत गम्य हैं। कुछ भी हो किन्तु फिर भी प्राण विषयक जिन विचारोंका अंकुर संहितादिमें मिलता है, उनका विशेष पल्लवन प्रस्तुत आरण्यक बहुत अच्छा बन पड़ा है । 'प्राणो वै युवा सुवासाः' 'प्राणो वै तनूनपात्' 'प्राणे वै सः' इत्यादि रूपमें वह (प्राणदेवता) स्वयं भोक्ता एवं भोग्यरूपमें सर्वतोभावेन प्रतिष्ठित है।
१. तं (प्राणदेवम्) भूतिरिति देवा उपासाञ्चक्रिरे ते बभूवुः । "अभूतिरिति असुरास्ते पराबभूवुः ।
(ऐ० आ० २१११८)। २. तम् (विश्वामित्रम्) इन्द्र उवाच । प्राणो वा अहमस्मि ऋषे, प्राणस्त्वम्, प्राण : सर्वाणि भूतानि ।
(ऐ० आ० २।२।३।) ३. उद्यन्नु खलु आदित्यः सर्वाणि भूतानि प्रणयति तस्मादेनं प्राण इति आचक्षते । (ऐ० ब्रा० ५।३१ ।) ४. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।
विविध : २७१
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