Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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सातवें अंग 'ध्यान'को साध्य बताया गया है। श्रीमद्भगवद्गीतामें योगको विविधतापूर्ण, बारीक एवं व्यावहारिक परिभाषाएं उपलब्ध होती हैं। गीताके अट्रारहों अध्याय अट्ठारह योगके रूपमें वर्णित हैं। इन अट्रारहों योगों में भगवान कृष्णने कर्मयोगकी श्रेष्ठता सिद्ध की है (२।३८-४१) और कर्म के प्रति कुशलताको ही 'योग' कहा है ('योगः कर्मसु कौशलम्')। कर्मका स्वभाव कषाय या बन्धन उत्पन्न करना है। कर्मके प्रति समत्वबुद्धि-रूप कौशलको अपनानेसे ही कर्मकी स्वाभाविक बन्धनशक्ति नष्ट होती है। कर्मके बन्धनसे मुक्त व्यक्ति ही ब्रह्म और आत्माके एकत्व-दर्शन-रूप 'योग'के प्रतिलाभमें समर्थ होता है।
गीताके छठे अध्यायमें भगवान् कृष्णने कहा है कि कर्मफलकी आशा न करके जो अपने नित्यकर्तृक कर्मका सम्पादन करते हैं, वही योगी और संन्यासी है। क्योंकि, कर्मफलका त्याग करनेवाला ही कर्मयोगी होता है। ध्यानयोगके अन्तरंग साधनमें अशक्त व्यक्तिके लिए निष्कामभावसे कर्मका अनुष्ठान ही बहिरंग साधन है। जो व्यक्ति बहिरंग साधनमें समर्थ होता है, वही धीरे-धीरे अन्तरंग साधन द्वारा योगारूढ होनेकी शक्ति प्राप्त कर लेता है। शुद्ध मनवाला व्यक्ति अपना उद्धार आप कर लेता है और विषयासक्त मनवाले बन्धनमें पड़ जाते हैं। जितेन्द्रिय, प्रशान्त और योगारूढ व्यक्तिको ही अभिज्ञान होता है और आत्मज्ञानसम्पन्न ही जीवन्मुक्त होते हैं और जो जीवन्मुक्त हैं, वे शीत-उष्ण, सुख-दुःख तथा मानापमानकी स्थितिमें भी कभी विचलित नहीं होते । उनके लिए मिट्टी, पत्थर, सोना सब बराबर होते हैं : समत्वं योग उच्यते ।
आसन और ध्यानकी महत्ता प्रतिपादित करते हुए गीता कहती है कि योगी निर्जन एकाकी स्थानमें निराकांक्ष और परिग्रहशून्य होकर देह और मनमें संयमपूर्वक अन्तःकरणको समाहित करे । स्वभावतः या संस्कारतः शुद्ध स्थानमें कुश, वस्त्र या मृगचर्म द्वारा रचित न अधिक ऊँचे, न अधिक नीचे आसनपर आत्माको स्थिर करना चाहिए। योगी अधिक भोजन और अधिक निद्रासे बचे, साथ ही अनाहार और अनिद्राको वर्जनीय समझे । गीताका उपदेश है कि योग उसीके लिए सुखप्रद हो सकता है, जिसके आहार-विहार, निद्रा-जागरण और सभी प्रकारकी कर्मचेष्टाएँ नियमित है। योगी तभी योगसिद्ध हो सकता है, जब वह चित्तनिरोधपर्वक सभी कामनाओंसे मुक्त एवं बाह्य चिन्तासे दूर रहकर अपनी आत्मामें अवस्थित योगीका चित्त निर्वात वातावरणमें स्थित निष्कम्प दीपशिखाकी भाँति होता है। चैतन्य ज्योतिस्वरूप आत्मज्ञान प्राप्त कर लेनेपर योगीके लिए अन्य कोई भी सांसारिक वस्तु अप्राप्य नहीं प्रतीत होती । सम्पूर्ण दुःखोंसे आत्यन्तिक निवृत्ति-रूप आत्मावस्थिति ही 'समाधि' है, जिसे गीताने 'ब्राह्मी स्थिति' कहा है।
इस प्रकार, भारतीय प्राचीन ग्रन्थोंमें योगकी चर्चा बड़ी विशदता और प्रचुरतासे हुई है। किन्तु, योगकी व्यावहारिक व्याख्याके लिए श्रीमद्भगवद्गीता और पुराण-परवर्ती कालमें योगकी शास्त्रीय न्याख्याके लिए योगसूत्र ('पातंजलदर्शन')-ये दोनों अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। प्रसिद्ध भारतीय छह दर्शनोंमें 'योगदर्शन'का अपना महत्त्व है। अगर हम यह कहें कि योगदर्शनका ज्ञान होनेपर ही अन्य सारे दर्शन हदयंगम हो सकते हैं, तो अत्युक्ति नहीं होगी।
वैदिकोत्तर दर्शनोंमें प्रमुख बौद्धदर्शन और जैनदर्शनमें योगको पुंखानुपुंख चर्चा हुई है । सम्पूर्ण बौद्धदर्शनको 'योगदर्शन'का ही पर्याय कहा जाना चाहिए। हठयोग तथा राजयोगमें षडंग या अष्टांग दोनों ही प्रख्यात हैं। किन्तु, बौद्धोंका षडंगयोग इससे विलक्षण है। प्रसिद्ध तन्त्रवेत्ता महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराजने आचार्य नरेन्द्रदेवके बौद्ध-धर्म-दर्शनकी भूमिकामें लिखा है कि बौद्धोंके षडंग योगका प्राचीन विवरण गुह्यसमाजमें तथा मंजुश्रीकृत कालचक्रोत्तरमें पाया जाता है। परवर्ती साहित्यमें, विशेषतः नडपादकी सेकोद्देशटीकामें तथा मर्मकलिकातन्त्रमें इसका वर्णन है। इसे 'बौद्धयोग'के नामसे भी अभि
२७४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ
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