Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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तृतीय सर्ग में सुमेरु-वर्णनके अन्तर्गत देव-दम्पतियोंके विहारवर्णनमें सम्भोग श्रृंगारकी मार्मिक अवतारणा हुई है ।
गोपाः स्फुरन्ति कुसुमायुधचापरोपात् कोपादिवाम्बुजदृशः कृतमानलोपाः । क्रीडन्ति लोलनयनानयनाच्च दोलास्वान्दोलनेन विबुधाश्च सुधाशनेन ॥ ३॥४ काव्य में यद्यपि भरतकी दिग्विजय तथा राम एवं कृष्णके युद्धोंका वर्णन है किन्तु उसमें वीर रसकी सफल अभिव्यक्ति नहीं हो सकी है । कुछ पद्योंके राम तथा कृष्ण पक्षके अर्थमें वीररसका पल्लवन हुआ है । इस दृष्टि से यह युद्धचित्र दर्शनीय है ।
तत्राप्तदानवबलस्य बलारिरेष न्यायान्तरायकरणं रणतो निवार्य ।
धात्री जिघृक्षु शिशुपालक राक्षसादिदुर्योधनं यवनभूपमपाचकार ॥ ३।३०
अलंकारविधान - चित्रकाव्य होने के नाते सप्तसन्धानमें चित्रशैलीके प्रमुख उपकरण अलंकारोंकी निर्बाध योजना हुई है । किन्तु यह ज्ञातव्य है कि काव्य में अलंकार भावानुभूतिको तीव्र बनाने अथवा भावव्यंजनाको स्पष्टता प्रदान करनेके लिये प्रयुक्त नहीं हुए हैं । वे स्वयं कत्रिके साध्य हैं । उनकी साधना में लग कर वह काव्यके अन्य धर्मोको भूल जाता है जिससे प्रस्तुत काव्य अलंकृति - प्रदर्शनका अखाड़ा बन गया है ।
मेघविजयने अपने लिये बहुत भयंकर लक्ष्य निर्धारित किया है । सात नायकों के जीवनवृत्तको एकसाथ निबद्ध करनेके लिये उसे पग-पगपर श्लेषका आँचल पकड़ना पड़ा है । वस्तुतः श्लेष उसकी वैसाखी है, जिसके बिना वह एक पग भी नहीं चल सकता । काव्यमें श्लेषके सभी रूपोंका प्रयोग हुआ है । पाँचवें सर्गमें श्लेषात्मक शैलीका विकट रूप दिखाई देता है । पद्योंको विभिन्न अर्थोंका द्योतक बनानेके लिये यहाँ जिस
गर्भित भाषाकी योजना की गयी है, उससे जूझता - जूझता पाठक हताश हो जाता है । टीकाकी सहायता के बिना यह सर्ग अपठनीय है। निम्नोक्त पद्यके तीन मुख्य अर्थ हैं, जिनमेंसे एक पाँच तीर्थंकरोंपर घटित होता है, शेष दो राम तथा कृष्ण के पक्ष में ।
श्रुतिमुपगता दीव्यद्रूपा सुलक्षणलक्षिता सुरबलभृताम्भोधावद्रौपदीरितसद्गवी । सुररववशाद् भिन्नाद् द्वीपान्नतेन समाहृता हरिपवनयोर्धर्मस्यात्रात्मजेषु पराजये || ५|३६
यह अनुष्टुप् इससे भी अधिक विकट है । कविको इसके चार अर्थ अभीष्ट हैं ।
कुमारी वेदसाहस्रान् सराज्यान् यत्कृते दधत् । इक्ष्वाकुवंशवृषभः शं-के-वलश्रिया
अपने कथ्य के निबन्धनके लिये कविने श्लेषकी भाँति यमकका भी बहुत उपयोग किया है। आठवाँ सर्ग तो आद्यन्त यमकसे भरा पड़ा है । नगरवर्णनकी प्रस्तुत पंक्तियोंसे श्लोकार्धयमककी करालताका अनुमान किया जा सकता है ।
न गौरवं ध्यायति विप्रमुक्तं न गौरवं ध्यायति विप्रमुक्तम् । पुनर्नवाचारभसा नवार्था- पुनर्नवाचारभसा
शब्दालंकारोंमें अनुप्रासका भी काव्य में पर्याप्त प्रयोग हुआ है । यमक तथा श्लेषये परिपूर्ण इस काव्य में अनुप्रासकी मधुरध्वनि रोचक वैविध्य उपस्थित करती है । चरितनायकोंके पिताओं की शासनव्यवस्था के वर्ण के प्रसंग अनुप्रासका नादसौन्दर्य मोहक बन पड़ा है।
सांकर्यकार्यं प्रविचार्य वार्यं विरोधमुत्सार्य समर्त्तवस्ते | सामान्यमाधाय समाधिसाराधिकारमीयुर्भुवि निर्विकाराः ॥ २६
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श्रितः ॥ ६५९
नवार्थाः ॥ १।५२
विविध : ३०५
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