Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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थानुपपत्ति रूपसे । तथोपपत्तिका' अर्थ है साध्यके होनेपर ही साधनका होना; जैसे अग्निके होनेपर ही धूम होता है। और अन्यथानुपपत्तिका आशय है साध्यके अभावमें साधनका न होना; यथा अग्निके अभावमें धूम नहीं ही होता। यद्यपि हेतुके ये दोनों प्रयोग साधर्म्य और वैधर्म्य अथवा अन्वय और व्यतिरेकके तुल्य हैं। किन्तु उनमें अन्तर है। साधर्म्य और वैधयं अथवा अन्वय और व्यतिरेकके साथ नियम (एवकार) नहीं रहता, अतः वे अनियत भी हो सकते हैं। पर तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्तिके साथ नियम (एवकार) होनेसे उनमें अनियमकी सम्भावना नहीं है-दोनों नियतरूप होते हैं। दूसरे ये दोनों ज्ञानात्मक है, जब कि साधर्म्य और वैधर्म्य अथवा अन्वय और व्यतिरेक ज्ञेयधर्मात्मक है। अतः जैन मनीषियोंने उन्हें स्वीकार न कर तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्तिको स्वीकार किया तथा इनमेंसे किसी एकका ही प्रयोग पर्याप्त माना है , दोनोंका नहीं।
१. प्र० न० त० ३।३०। त० श्लो० १।१३।१७५ । २. वही, ३।३१ । ३. वही, ३३३३ । न्यायाव० का० १७ । प्र० मी० २।१।५,६ ।
विविध : २६३
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