Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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दो शासकों के हाथमें राज्य सत्ता हो इस प्रकारकी परम्परा प्राचीन भारतमें कतिपय स्थानोंपर थीं । जिस समय सिकन्दर ने भारतपर आक्रमण किया था उस समय वर्तमान दक्षिण सिन्धमें स्थित पाताल राज्यमें विभिन्न कुलके दो राजाओं के हाथमें राज्य सत्ता थी । ( मैकक्रिण्डल, अलेक्जांडर्स इनवेजन, पृ० २९६ ) इस प्रकारके दो अमली राज्यके लिये कौटिल्य के अर्थशास्त्र में द्वैराज्य (इसे डायक- द्विमुखी राज्य व्यवस्था कहा जायगा ? ) शब्दका प्रयोग हुआ है । कौटिल्य, पूर्वाचार्योंके मतको अंकित करके कहता है कि 'दो पक्षों में द्वेष, वेमनस्य एवं संघर्षके कारण' द्वैराज्य नष्ट हो जाता है । ( अर्थशास्त्र ८-२ ) भाइयों और पितृव्यों के मध्य भूमि बाँटने की अपेक्षा वे संयुक्त प्रबन्ध करें इस हेतु भी ऐसी व्यवस्था करनी पड़ी होगी । यद्यपि, ऐसे राज्य में आन्तरिक विद्वेष - कलहका प्रमाण अधिक होजाना स्वाभाविक है । जैन आगमों में के आचारांग सूत्रमें ऐसे राज्यका (प्रा० दोरज्जाणि, सं० द्विराज्यानि) का उल्लेख है और साधु ऐसे राज्य में विचरण नहीं करे, इस प्रकारका विधान है । कान्हड़देप्रबन्धमें जिस पद्धतिका उल्लेख है वह वस्तुतः द्वैराज्य पद्धति है । गुजरातके वाघेला शासकों में यह पद्धति विशेषतः प्रचलित हो, ऐसा प्रतीत होता है । घोलका के वाघेला राणा लवणप्रसाद और उसके पुत्र वीरधवलके सम्बन्धमें प्रबन्धात्मक वृत्तान्त इस प्रकार का है कि, वास्तव में मुख्य शासक कौन है यह स्पष्ट रूपसे जान लेना कठिन है । लवणप्रसादके देहान्तका वर्ष निश्चित हो तत्पश्चात् ही अमुक घटना घटित हुई उस समय मुख्य शासक - युवराज नहीं —— कौन था इसका पता लग सकता है । लवणप्रसादका देहान्त सं० १२८०-८२ और १२८७के मध्य कभी हुआ होगा ऐसा प्राप्त प्रमाणों परसे प्रतीत होता है (श्री दुर्गाशंकर शास्त्री गुजरात नो मध्यकालीन राजपूत इतिहास, द्वितीयावृत्ति पृ०सं० ४५० ) किन्तु इसकी विशेष चर्चा यहाँ करना उपयुक्त नहीं है ।
परन्तु द्वैराज्य-पद्धतिका वाघेलाओंमें अच्छा प्रचार था इस हेतु विशेष आधार चाहिये । अर्जुनदेव वाघेला के ज्येष्ठ पुत्र रामदेवने अपने पिताके जीवन कालके मध्य ही राज्यभार वहन कर लिया था। समकालीन शिलालेखों द्वारा यह भली भाँति स्पष्ट ज्ञात हो जाता है । खंभात में के चिन्तामणि पार्श्वनाथ के मंदिर के सं० १३५२ ( ई० स० १२९६) के शिलालेख में वर्णन है—
रिपुमल्लप्रमर्दी यः प्रतापमल्ल ईडितः । तत्सूनुरर्जुनो राजा राज्येऽजन्यर्ज्जुनोऽपरः ||८|| ऊ.........क्ति विजयी परेषाम् । तन्नन्दनोऽनिन्दितकीर्तिरस्ति ज्यष्ठोऽपि रामः किमु कामदेवः ||९|| उभौ धुरौ धारयतः प्रजानां पितुः पदस्यास्य च धुर्यकल्पौ । कल्पुद्र मौणौ भुवि रामकृष्णौ ॥ १० ॥ ( आचार्य जिनविजयजी, 'प्राचीन जैन लेख संग्रह' भाग २ लेखांक ४४९ ) वीरधवल बाघेला के दो पुत्र थे - प्रतापमल्ल और वीसलदेव । प्रतापमल्लका तो वीरधवलके जीवन कालमें ही अर्जुनदेव नामक पुत्रको छोड़कर स्वर्गवास हो गया था । वीरधवलके बाद, वीसलदेव घोलका राणा बना और तत्पश्चात् कुछ समयोपरान्त वह पाटणका महाराजाधिराज बना । वीसलदेव अपुत्र होगा । वह अपने भाई प्रतापमल्लके पुत्र अर्जुनदेवका राज्याभिषेक कर स्वर्गवासी हो गया । ऐसा, सं० १३४३ ( ई०स० १२८७ ) की त्रिपुरान्त प्रशस्ति में कहा गया है
श्रीविश्वमल्लः स्वपदेऽभिषिच्य प्रतापमल्लात्मजमर्जुनं सः । साकं सुधापाकमभुंक्त नाकनितम्बिनीनामधरामृतैन ॥
(श्री गिरिजाशंकर आचार्य, 'गुजरातना ऐतिहासिक लेखो' भाग ३ लेखांक २२२ )
अर्जुनदेव और उसके पुत्र युवराज रामदेवने राज्य शासनका भार एक साथ ही अपने अपने हाथोंमें ले लिया था । किन्तु रामदेवका अपने पिताका जीवन-काल में ही देहान्त हो गया प्रतीत होता है । क्योंकि, अर्जुनदेव के पश्चात् रामदेव नहीं अपितु इसका भाई सारंगदेव पाटणकी राज्यगद्दीपर आता है ।
भाषा और साहित्य : २१५
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